guliver ki chauthi yatra

मुक्तक

फल पाप-पुण्य के तो मिले-जुले होते हैं
पाकर उन्हें हम कभी हँसते कभी रोते हैं
ज्ञानी पर वही है जो असंग रहकर दोनों से ही
कर्म-भोग जान इन्हें, सुख की नींद सोते हैं

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जो था सन्देश दिया मन-ही-मन
उसको होठों से दे दिया होता
साथ तो चलते रहे हम लेकिन
हाथ में हाथ भी लिया होता

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मयक़दों में कभी फ़रिश्तों में
ज़िंदगी जी रहा हूँ किश्तों में
मैं हूँ शायर भी और सूफ़ी भी
जोड़ लें चाहे जैसे रिश्तों में

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ग़ज़ल हो गीत हो, दोहे या रुबाई, कुछ हो
किया सभी ने है रौशन मेरे ख़यालों को
शराब कैसे भी प्याले में भरी हो वह तो
नशे में लाके ही रहती है पीनेवालों को

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गुरुजन तो देवता हमारे थे
मित्र भी सभी प्यारे-प्यारे थे
दाँव हारे हों बहुत जीवन में
दाँव कविता के हम न हारे थे

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मुझको जो देना था मैंने दे दिया
उसको जो पाना था उसने पा लिया
मेरी भूलें क्या! उसका छल-कपट क्या!
दोनों ने पात्रानुसार अभिनय किया

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उजड़ चुकी मधुशाला अब है भीड़ न पीनेवालों की
कुम्भकार! किसके हित करता ढेर सुराही प्यालों की
सुनकर बोला कुम्भकार, क्या मधु-तृष्णा भी शेष हुई!
जब तक है वह, कमी न होगी कभी यहाँ मतवालों की