chandni

नीली साड़ी पहने तुम चाँदनी रात-सी
आयी खोल बंद कमरे का द्वार
मुग्ध-नयन मैं देख रहा छवि गौर गात की
कवि की प्रेयसि ! कविता-सी सुकुमार

अरुणवदन ज्यों तुरत उगा विधु-मंडल
नील गगन में, तरुण अधर-सा कोमल
वक्षस्थल पर तारे झलमल-झलमल
झूम रहे कंधों से नीचे कटि तक
घूँघरदार तिमिर-से काले कुंतल
त्तम में दीपशिखा-सी कलियाँ पारिजात की
‘कलियों में मुक्तावलि ज्यों नीहार

चकित मृगी-सी दृग-पुतलियाँ फिराती
मंद-चरण आती शैया के पास
बायें कर से अंचल-छोर झुकाती
दायें में पानी का लिये गिलास
कंपित हिम-सा वक्ष, चूर्ण ज्योत्स्ना-प्रपात-सी
‘पहिनाती-सी दृग-किरणों का हार
कवि की प्रेयसि ! कविता-सी सुकुमार

देख रहा मैं रेखा भूल कला की
मधु से लथपथ कमल कली-सा मुखड़ा
नशा गुलाबी नत नयनों में उखड़ा
नील घनों में बँधी ज्योति चपला की
धरती पर ज्यों खिला चाँद का टुकड़ा
या जग-निशि-प्रांगण में पहली प्रभा प्रात की
सकुच माँगती हो अपना अधिकार
नीली साड़ी पहने तुम चाँदनी रात-सी
आयी खोल बंद कमरे का द्वार

1941