anbindhe moti
मधुयामिनी
बीती वियोग की रात, विकल दो प्राण मिले
लो, आया स्वर्ण प्रभात, सुनहले कमल खिले
कितनी मधु-ममता संचित कलि में थी
कितनी आकुलता वंचित अलि में थी
कितनी उत्सुकता कुसुमावलि में थी
लज्जारूण दो दृग-पात झुके पहिले-पहिले
निर्जन की रानी अपहत-वैभव थी
मलयानिल थिर था, कोयल नीरव थी
वह नख से शिख तक अभिनव अनुभव थी
सुख से सिहरा मृदुगात, कुसुम के कुंज हिले
झलमल कपोल दल चल चुंबन-झलकें
तंद्रालसस थी लालसा भरी पलकों
उड़तीं दिशि-दिशि मर्दित परिमल-अलकें
सखियाँ करती थीं बात, मधुर मुख पर स्मिति ले
बीती वियोग की रात, विकल दो प्राण मिले
लो, आया स्वर्ण प्रभात, सुनहले कमल खिले
1942