sau gulab khile
न होंठ तक कभी आयी, न मन के द्वार गयी
वो एक बात मेरी चेतना सँवार गयी
हृदय की पीर को गीतों में भर दिया मैंने
प्यार जीता है जहाँ ज़िंदगी थी हार गयी
किसीके रूप का उन्माद कैसे भूले कोई !
पिघलती आग-सी सीने के आर-पार गयी
पलटके देखा जो तुमने लजीली आँखों से
लगा कि फिर से मुझे ज़िंदगी पुकार गयी
घिरी घटा मेरी आँखों से होड़ लेती हुई
बड़ी ही शान से आयी थी, तार-तार गयी
जहाँ-जहाँ थी, क़सम प्यार की खायी तुमने
वहीं-वहीं पे नज़र मेरी बार-बार गयी
भरी सभा में सबोंसे नज़र चुराती हुई
कोई गुलाब की पँखुरी से मुझको मार गयी