alok vritt
‘नवम सर्ग
बाँध न्याय के नाग-पाश में सत्य-सुमेर-अचल को
मथती थीं सदसत् प्रवृत्तियाँ हिंदमहोदधि-तल को
यद्यपि बाहर रक्तपात, विस्फोट नहीं थे होते
पर उर में थे फूट रहे ज्वालामुखियों के सोते
इस मंथन से निकलेगा ऐरावत जो समता का
चढ़ा इंद्र-सा उस पर होगा वीर जवाहर बाँका
शासन-उच्चश्रवा-अश्व की बाग पटेल धरेगा
जो भारत का राजसूय-मख पल में पूर्ण करेगा
फैलाता निज शांति-स्नेह-सौहार्द-ज्योति घर-घर में
रूप विनोबा का चमकेगा शशिकर सा अंबर में
लेंगे बाँट रल तो सारे देव-दनुज मिल-जुलकर
पर बापू ही एक मात्र होंगे विषपायी शंकर
स्वतंत्रता का सुधा-कलश रख दिल्ली के आसन पर
नहीं असुर, सुर स्वयं लड़ेंगे आपस में ही खुलकर
यह समुद्र-मंथन अद्भुत था इस बीसवीं सदी का
टूटा जिससे पराधीनता का बंधन जननी का
किसने सोचा था यों वंदी हो स्वतंत्र विचरेगा
धरती का दुर्बल प्राणी शशितल पर चरण धरेगा!
कभी किसीने बल को ममता से रुकते देखा है!
फूलों के आगे तलवारों को झुकते देखा है!
यद्यपि बार-बार प्रकटी है शक्ति प्रेम की जग में
ईसा का शोणित बहता है पश्चिम की रग-रग में
पर इतिहास-पटल पर अंकित असि की ही जय-गाथा
स्वतः झुकाया नहीं सत्य को देख शक्ति ने माथा
यह नूतन इतिहास आज कवि लिखने जिसे चला है
पशुबल पर आत्मा की जय का उदाहरण पहला है
विजय असत्य-अनाचारों पर सत्याग्रही विनय की
मृण्मय पर चिन्मय की, जड़ पर चेतन की, गतिमय की
राजनीति पर लोकनीति की, बल पर बलिदानी की
यह जय थी ज्वाला की लपटों पर शीतल पानी की
अति भीषण दुर्भिक्ष देखकर काँप रहा था खेड़ा
आवर्तों में ऊभचूभ ज्यों डूब रहा हो बेड़ा
उस क्षण जिसकी वज्र-मुष्ठियों ने पतवार सँभाली
वह पटेल ही था अभिनव चाणक्य-सदृश बलशाली
गाँव-गाँव में गुंजित था स्वर कौड़ी एक न देंगे
प्राण रहें या जाय, जोत देकर निज टेक न देंगे
तीस करोड़ दीप युग-युग से स्नेहिल मौन धरे से
एक अहिंसा-द्युति से जगमग जागे ज्योतिभरे से
पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण गया उजाला
गाँव-गाँव, घर-घर से फूटी एक नयी ही ज्वाला
कर वसूलने भेजा जाता जिन्हें शस्त्र-बल देकर
वे दिन ढलते रिक्त लौटते अपना-सा मुँह लेकर
गाँव मशानों-से मिलते थे उन्हें और घर सूने
जैसे पत्थर किया सभी को किसी अलख जादू ने
खेतों में तो नहीं अन्न का दाना एक कहीं था
पर सूने खलिहान देख लगता दुर्भिक्ष वहीं था
एक मात्र धरती थी जिसको कोई छीन न पाया
मिली धूल में जिसकी, विश्व-विजेताओं की माया
उसे कुर्क करके कोई सिर पर किस तरह उठाये!
सागर के उस पार जहाजों से कैसे पहुँचाये!
वह तो समरस चिर-अनादि से अपनी सत्य-धुरी पर
घूम रही है मधुमक्खी-सी रवि की सित पँखुरी पर
यद्यपि छलती रही सभी को उसकी मोहक छाया
महाशक्ति का स्रोत अमर जो जन-जन में बहता है
उसे जीतने में जग-विजयी भी अशक्त रहता है
शासित की स्वीकृति न मिले तो शासक क्या कर लेगा!
यदि आधार मिटे भय का तो एकतंत्र ठहरेगा!
पूर्ण अहिंसात्मक होगा जब असहयोग जनता का
सेना के बल पर कितने दिन टिका रहेगा साका!
सेना भी क्या करे, नहीं यदि अन्न-वस्त्र मिल पाये
गाँव-गाँव, घर-घर विरोध का दावानल लहराये!
संगीनों से एक फूल भी खिला नहीं सकते हैं
बंदूकों से मार भले दें, जिला नहीं सकते हैं
असहयोग संपूर्ण अहिंसात्मक हो यदि शासन से
बिना युद्ध के देश स्वतंत्र हुआ समझो उस क्षण से
और यही खेड़ा ने उस दिन करके था दिखलाया
कुर्क वस्तु का ग्राहक तो क्या वाहक एक न आया
राजपत्र तक थी राजाज्ञा, सैन्य-शक्ति शिविरों तक
शासन सचिवालय तक, सत्ता की इति भग्न शिरों तक
‘खेड़ा में जो हुआ वही यदि निखिल देश में होता
यह दासत्व-कलंक युगों का, भारत पल में धोता’
जहाँ टिका कर चरण विदेशी सत्ता हुई खड़ी थी
प्रथम जहाँ साम्राज्यवाद की खूनी नींव पड़ी थी
उसी भूमि से बापू ने जय का यह मंत्र सुनाया
जिसे हर्ष-गदगद स्वदेश के जन-जन ने दुहराया
जागा नव संकल्प प्रांण में, नयी शक्ति अंतर में
दृग में नव उत्साह, चेतना, दीप्ति नयी घर-घर में
सिंधु लाँघता गया मंत्र का घोष, हिल उठी सत्ता
एक बार फिर बना क्रांति का सूत्रधार कलकत्ता