ahalya
अचपल दीपक-सी बँधी पलक, अणु-अणु थर-थर
हो गई अहल्या चकित देख वह तेज प्रखर
उच्छ्वसित हृदय ज्यों चढ़े तार-सा गया उतर
‘यह वही युगों से जिसके हित जीवन कातर,
भिक्षुक-सा डोल रहा था?’
कानों में गूँजे गीत मधुर, कोमल, उदार
रँग गया कपोलों को अनदेखा चित्रकार
चेतना सुलग थी रही आरती-सी उतार
उर-कुसुम समर्पण को आकुल हो बारबार
दल पर दल खोल रहा था