aayu banee prastavana
देह नहीं देहेतर से मैं करता प्यार रहा हूँ
तुममें एक और जो ‘तुम’ है, उसे पुकार रहा हूँ
एक झलक के लिए सतत मेरी आत्मा अकुलाती
सुग-युग की पहिचान प्राण की, काम नहीं कुछ आतीं
तन के गाढ़ालिंगन में भी उसका स्पर्श न मिलता
अधरों के चुंबन में भी वह दूर खड़ी मुस्काती
तन के माध्यम से मैं जिसकी कर मनुहार रहा हूँ
अधरों का चुंबन पीकर भी अधर तृषित रहते हैं
बँध आकंठ भुजाओं में भी प्राण व्यथित रहते हैं
देह स्वयं बाधा बन जाती स्नेहभरे हृदयों की
खुलते नहीं भाव जो छवि में अंतर्हित रहते हैं
जीत-जीतकर भी मैं जैसे बाजी हार रहा हूँ
मधुर व्यथा जो उफन-उफनकर शोणित में बल खाती
वह तुमसे संपूर्ण तुम्हें ही पाने को अकुलाती
अनाप्रात चिर सुमन प्राण का, चिर अनबुझ, अछूता
मोती में वंदी पानी की धारा छुई न जाती
तुम उस पार खड़ी हँसती हो मैं इस पार रहा हूँ
अंजलि में गिरता जल, ओंठों पर आकर उड़ जाता
एक द्वार खुलता है जैसे एक द्वार जुड़ जाता
पाकर भी अप्राप्प सदा जो छवि अदेय देकर भी
लगता जैसे लक्ष्य-निकट से मार्ग स्वयं मुड़ जाता
मुग्ध शलभ मैं दीपशिखा पर चक्कर मार रहा हूँ
देह नहीं देहेतर से मैं करता प्यार रहा हूँ
तुममें एक और जो ‘तुम’ है, उसे पुकार रहा हूँ
1964