aayu banee prastavana

ओ मेरे जीवन की वीणा!
मैं देख रहा प्रतिक्षण तेरी ध्वनि होती जाती है क्षीणा!

चंचल तरुओं के नीड़ कहाँ!
स्वर-किन्नरियों की भीड़ कहाँ!
वह तान कहाँ! वह मींड़ कहाँ!

वह राग कहाँ रस से भीना!

जिनसे प्राणों के तार कसे
उर झंकृत था जिनके स्वर से
वे अंतरवासी कहाँ बसे?

किसने तेरा गुंजन छीना!

वह बात कहाँ से लाऊँ मैं!
अब कैसे तुझ पर गाऊँ मैं!
जीते जी क्‍या मर जाऊँ मैं

भरता साँसें. आशय-हीना!
ओ मेरे जीवन की वीणा!

1946