ahalya
पद-नूपुर-शिंजित नहीं, रूप-लावण्य क्षीण
मैं जनक कनक-मणिहारों का, पहनूँ कभी न!
यह मृग-तृष्णा, यह भाग-दौड़, मैं मुक्त मीन
द्रष्टा, स्रष्टा सबका, फिर भी सबसे विहीन
केवल विधान पढ़ता हूँ
मर-मरकर जीने की, उठ-उठकर गिरने की
अभिलाषा यौवन की लहरों पर तिरने की
मैं करूँ प्रतीक्षा किसके गृह में फिरने की
निर्बाध, शून्य झंझा-सा, घन के घिरने-की
मूर्तियाँ विफल गढ़ता हूँ