ahalya

स्वर-फूटे दग्ध हृदय को शीतल चंदन-से
‘नारी का जीवन धन्य मात्र पद-वंदन से
संकल्पित-सी मैं उतर पड़ी जो नंदन से
यह नहीं देह का गुण, आत्मा के बंधन से
तन-प्राण बँधे आये हैं

‘अंतर की अकलुष स्नेह-वृत्ति कब हुई मृषा!
तन मिलता उससे जिससे मन की बुझी तृषा
सेवा-वंचित यह, आर्य! आपकी खिन्न दशा
मैं दूँगी इन सूखे अंगों में सुरभि बसा
जो असमय कुम्हलाये हैं