ahalya

नारीत्व बिना जिसके निष्फल जल-चित्र-सदृश
वह आत्म-विसर्जन भाव जगा उर में बरबस
सिहरन कैसी! उलझन क्या! कैसा असमंजस !
खुलता सुवर्ण का वर्ण, कसौटी पर कस-कस–
जब चोट कड़ी है पड़ती

झीनी फुहार, यौवन-रस दश-दिशि गया बरस
सब अंगु प्रियंगु-लता-से हँस-हँस, विकस-विकस
अपनी छवि पर झुक गये आप बेसुध, सालस
प्राणों से प्रीति, विलास, भावना की बरबस
धारा थी आप उमड़ती