ahalya
घन-सजल-श्याम, छवि-धाम, भक्त-भव-भय-हारी
आगे-आगे रघुनायक धनु-सायक-धारी
मुनि आये चलकर सभा-मध्य, प्रमुदित भारी
अवधेश जहाँ ससमाज लिये कुश-जल, झारी
थे खड़े चरण-वंदन को
बोले, ‘नृप! धन्य पुरी यह, पुरवासी सारे
तुम धन्य, धन्य जननी जिनके दृग के तारे
ये चारों सुंदर राजकुँवर प्यारे-प्यारे
मैं धन्य आज बन अतिथि तुम्हारे शुभ द्वारे
ऋषियों के हित-साधन को