ahalya

मंगल-गौरव-छवि-धाम राम निष्काम बढ़े
अभिशप्त, तप्त भू की दिशि ज्यों घनश्याम बढ़े
तम-पूर्ण गुहा में जैसे किरण ललाम बढ़े
छूते ही दृग से अश्रु-तुहिन अविराम झड़े
गल गयी शिला-सी नारी

युग-युग का पाप-ताप पल में जल हुआ क्षार
आ गयी तीर पर तरणी जैसे निराधार
साधन-भ्रष्टा ने पाया मानों सिद्धि-द्वार
पग से लिपटी कर उठी आर्त स्वर में पुकार
जग के छल-बल से हारी