alok vritt

एकादश सर्ग

घटा अनुदिन नयी घहरा रही थी
झकोरे नाव जल में खा रही थी
नहीं कोई किनारा सूझता था
अकेला वृद्ध माँझी जूझता था

गये थे रोटियों की भेंट पाने
उन्हें थे पड़ गये कंकड़ चबाने
लगे थे नेत्र वर्धा पर सभीके
वहीं थे एक उद्धारक मही के

तड़ित सहसा तिमिर में झलमलायी
अकल्पित राह बापू ने दिखायी
‘नमक-कानून हमको तोड़ना है
नया इतिहास में कुछ जोड़ना है

‘नमक, जो भोग्य सबका, सब कहीं है
नमक, जिस पर कहीं बंधन नहीं है
हमारा सिंधु-जल है कोष जिसका
सहज वह मिल न पाये, दोष किसका !

“बनाने पर नमक के रोक क्‍यों यह!
पवन, आतप, सलिल-सा मुक्त हो वह
हमारी साँस पर पहरे लगायें
उन्हें हम न्याय कहकर सिर झुकायें |!

बहुत ये शब्द सीधे थे, सरल थे
मगर फलितार्थ को शासक विकल थे–
‘नमक से कौन-सा विस्फोट होगा?
छिपा क्‍या वार इसकी ओट होगा?’

सदा निर्भय रहे जो आत्मबल में
धँसे प्रहाद-से बापू अनल में
भले ही शांतिमय प्रस्थान था वह
अहिंसक युद्ध का आह्वान था वह

अनोखा दृश्य डाँडी ने दिखाया
नमक ने देश को ऊँचा उठाया
हजारों वीर बंधन में हुए थे
सभी के मन घृणा से अनछुए थे

न थे कारागृहों में कक्ष रीते
मगर सत्याग्रही जाते न जीते
पकड़ते एक को तो दस खड़े थे
जहाँ दस थे वहाँ सौ-सौ अड़े थे

चली गोली, हुए बम के धमाके
न फिर भी हौंसले कम थे प्रजा के
सिपाही थक गये थे वार करते
प्रशासक थक गये थे जेल भरते

पखेरू पंख नभ में खोलता ज्यों
हिमालय शक्ति अपनी तोलता ज्यों
गगन का मौन कुछ कहने लगा था
शिखर साम्राज्य का ढहने लगा था

बहुत जो दूर ऊँचे पर खड़े थे
उन्हें भी जान के लाले पड़े थे
पसीना भाल पर आने लगा था
कवच में गात थर्रने लगा था

हृदय में भीति सत्ता के जगी थी
कि कैसे आग पानी में लगी थी
न लाठी थी, न गोली थी, न बम थे
नमक के घाव तोपों से न कम थे

झुकाकर दर्प ने निज क्रुद्ध फण को
बुलाया मेज पर उस निर्वसन को
मधुर मुस्कान के पीछे छुरी थी
सुखद फिर भी बहुत लंदन पुरी थी

बड़ी ही शिष्टता थी आचरण में
छिपे थे सिंह-नख शब्दावरण में
छलावा किंतु यह पहचानते थे
उसे बापू निकट से जानते थे

उन्हें जब मोहिनी बस कर न पायी
नये अंदाज़ से वह मुस्कुरायी
दिये यों तो सभी सुख-साज उसने
छिपाकर रख लिया पर ताज उसने

हुआ मतदान का फल भी अनोखा
यहाँ पर देश ने खाया न धोखा
हजारों देवता आगे बढ़े थे
मगर सब फूल गांधी पर चढ़े थे

प्रदेशों को मिली स्वाधीनता थी
भले ही मूल में श्रीहीनता थी
प्रवंचित राष्ट्र थककर सो रहा था
उधर इतिहास तत्पर हो रहा था