alok vritt
त्रयोदश सर्ग
सुधाकर से सुधा झरने लगी थी
धरा श्रृंगार नव करने लगी थी
उठे थे शब्द जय-जय के भुवन से
अयोध्या में फिरे ज्यों राम वन से
अभी जो रात आधी आ रही थी
नया सूरज बहाकर ला रही थी
दिशा-पथ फूल से सजने लगे थे
हवा में शंख-से बजने लगे थे
मिला था हिंद से अतलांत आकर
हिमालय देखता था सिर उठाकर
तिरंगा व्योम तक लहरा रहा था
नया इतिहास बनने जा रहा था
विजय राजेंद्र को सकुचा रही थी
जवाहरलाल की ध्वनि आ रही थी–
“महत्ता हम सबों की क्या भला थी!
सभी उस वृद्ध माँझी की कला थी
उसीने थी सदा पतवार थामी
उसीकी सूझ से भागी गुलामी
अहिंसा ने अजब जादू दिखाये
विरोधी हैं खड़े कंधा मिलाये’
मिटे थे दासता के अंक सारे
विदेशी प्रेम से घर को सिधारे
बने थे पूर्व-पश्चिम एक जैसे
हुआ था राम का अभिषेक जैसे
खिले थे फूल तो रवि के उदय में
न थी पर शांति बापू के हृदय में
घृणा अबं भी हवा में पल रही थी
अहिंसा-ज्योति अब भी छल रही थी
हृदय में वेदना का भार लेकर
मनुजता की अमर झंकार लेकर
खड़े वे अडिग हिंसा के भँवर में
रहे थे प्रार्थना कर आर्त स्वर में–
‘प्रभो! इस देश को सत्पथ दिखाओ
लगी जो आग भारत में बुझाओ
मुझे दो शक्ति, इसको शांत कर दूँ
लपट में रोष की निज शीश धर दूँ
‘जिसे मैंने हृदय-शोणित दिया है
जिसे तुमने हरा फिर-से किया है
रहे सुख-शान्ति का उसमें बसेरा
न कुम्हलाये, प्रभो! यह बाग़ मेरा
‘विषमता, फूट, मिथ्याचार, भागे
सभी का हो उदय, नव ज्योति जागे
विजित हों प्यार से तक्षक विषैले
दयामय! विश्व में सद्भाव फैले’