alok vritt

षष्ठ सर्ग

सहसा सिहरन हुई धरा में, पतझड़ गया, वसंत हुआ
अँगड़ाई ले जगा अफ्रिका, काल-निशा का अंत हुआ
सदा रक्त-पथ से आती थी, नर-मुंडों से सज्जित-सी
क्रांति-कालिका जो शिव के उर पर पग रखते लज्जित-सी
आज वहीं तपमयी उमा-सी नये रूप में आयी थी
नये प्रेम-आयुध लेकर रण-प्रांगण में मुस्कायी थी
नहीं डूबता था सूरज जिसकी विस्तृत सीमाओं में
जो साम्राज्य अजेय-सदृश फैला था दसों दिशाओं में
किसने आज उसीकी अविजित सत्ता को ललकारा था
इन निःशस्त्र अहिंसा-व्रतियों पर विस्मित जग सारा था

शत मानव-पंक्तियाँ चलीं जीवन के नये विधान चले
समता-स्वतंत्रता लाने को युग के नव अभियान चले
महानाश से लोहा लेने जैसे नवनिर्माण चले
भूमि चली, नभ चला, दिशायें चलीं, अचल निष्प्राण चले

मुँह से उफ् तक किये बिना अधिकारों के हित अड़ना है
नहीं आदमी से, उसकी दुर्बलताओं से लड़ना है
जुड़ता जब सम्बन्ध हृदय का, भेद-भाव मिट जाता है
देश-जाति-रंगों से गहरा मानवता का नाता है

ऊर्ध्वगामिनी चेतनता पाषाण फोड़कर आयेगी
यह मानव-विकास की धारा आगे बढ़ती जायेगी
लाँघ न पाया जिसको कोई एक प्रेम की रेखा है
पंख कुतरकर रख दे मन के, ऐसा आयुध देखा है!

चले प्रेम करने जो रिपु से, जग की व्यथा बटोर चले
अभय कवचधर उन वीरों पर शस्त्रों का क्या जोर चले!
हँस-हँसकर अंगारे चुगते शशि की ओर चकोर चले
जैसे घन-पाहन-वर्षण में पर फैलाए मोर चले

चूमे कर प्रहार-कर्त्ता का यह तो कोई धोखा है
थे अवाक्‌ पक्षी-प्रतिपक्षी, यह संग्राम अनोखा है
गये जिधर आलोक चाँदनी जैसा घर-घर फैल गया
शर नूतन, संधान नया था, नयी प्रेरणा, लक्ष्य नया
भेदभाव सब भुला विश्व ने नवद्युति का अभिषेक किया
मानवता के महायज्ञ ने श्वेत-श्याम को एक किया

उर में प्रेम नयन में दृढ़ता, मुख पर ले मुस्कान चले
तोपों को देखा तो सम्मुख अपना सीना तान चले
तलवारों की खड़ी धार पर प्रेम-पथिक अम्लान चले
शासन कैसे चले जहाँ पर बल का नहीं प्रमाण चले

स्मट्स हाथ मल-मलकर ‘कहता कैसे लड़ूँ लड़ाई यह!
राजनीति, रणनीति कहीं भी मुझे न गयी सिखाई यह
नहीं समझ में आता है रिपु है या मेरा भाई यह
कारा उसको मुक्ति, मुक्ति मुझको कारा दुखदायी यह’

घोर निराशा में आशा की वीर टेरते तान चले
तम-तमाल पर तरुण तरणि का जैसे किरण-कृपाण चले
विद्युत-वाहित अयस्कांत-से मुट्ठी में ले प्राण चले
दूर अफ्रिका से भारत तक रचते नया विधान चले

विफल हुई आशायें कितनी, कितने लक्ष्य अलक्ष हुए
दिन से रात, रात से दिन के, उजले-काले पक्ष हुए
सत्याग्रह के शब्दकोष में शब्द नहीं दुर्बलता का
पथ का हर व्यवधान बना करता सोपान सफलता का
उनके सिर पर पग रखकर ही सत्य अहर्निश बढ़ता है
गति जितनी ही बाधित होती उतना ऊँचा चढ़ता है
इसी सत्य को धारण कर प्रहलाद आग में मुस्काया
कवच पहन कर यही कन्हैया कंस-कोप से लड़ पाया
इसके बल से ही बलि ने सुरपति का मुकुट उतार लिया
राज्य-रहित भी राघवेन्द्र ने रावण का संहार किया

‘जिस दिन सत्य पराजित होगा, सृष्टि नहीं ठहरेगी
अनस्तित्व के अंधकार की शून्य घटा घहरेगी
सत्य रूप है आत्मा का, परमात्मा की परिभाषा
बिना सत्य के प्रकृति कहाँ है, कहाँ भाव या भाषा
सत्य एक अव्यक्त, अलौकिक, अकथनीय अनुभव है
शिव जिसको हम कहते हैं वह बिना सत्य के शव है
सत्य नहीं देखा, उसने निज को भी क्‍या पहचाना!
तर्क कहाँ! विश्वास कहाँ! वह ज्ञान कहाँ जो जाना!
अणुओं के गुंफन से जो यह ऊर्जा निकल पड़ी है
वह भी तो बस उसी सत्य का ले आधार खड़ी है
अंतिम कारण, मूल प्रकृति वह, ब्रह्म कहो या चिति है
देश वही है, काल वही है, वही आदि है, इति है’

चिंतन के चरखे से थे भावी के सूत्र निकलते
लीक खींचते काल-पृष्ठ पर चरण रहे थे चलते