alok vritt
सप्तम सर्ग
स्वयं वन्दिनी पिंजरे में जब तड़प रही हो माता
कौन भला केसरिकिशोर को निज कुल-धर्म सिखाता!
चढ़े कूदकर गज-मस्तक पर, आती कैसे क्षमता!
अपने गर्जन की प्रतिध्वनि सुनकर था आप सहमता
क्रुद्ध कराघातों से दृढ़ अर्गला नहीं हिलती थी
सोया श्रांत मृगेंद्र, मुक्ति की युक्ति नहीं मिलती थी
सोया था हिमवान, सो रही थी गंगा की धारा
किसने निद्रालीन देश को एकाएक पुकारा
‘ओ पथचारी! जाग, देख सूरज सिर पर चढ़ आया
गिरि-गह्वर लाँघता काल का रथ कितना बढ़ आया!
तू अचेत ही रहा और सदियों पर सदियाँ बीतीं
जिस बाजी को हार गया तू वह औरों ने जीती
सोये में भी बढ़ता सृष्टि-विकास नहीं रुकता है
रुक जाते हैं देश किंतु इतिहास नहीं रुकता है
सबसे प्रथम, पुरातन, पावन, सबसे पिछड़ गया तू
आत्मलीन, जड़, जीवन की धारा से बिछड़ गया तू’
आत्मा जब तक नहीं जागती देह नहीं जागेगी
विफल प्रयास, कभी भुजबल से भीति नहीं भागेगी
जाग तुझे तेरी अतीत स्मृतियाँ धिक्कार रही हैं
जाग, जाग, तुझको भावी पीढ़ियाँ पुकार रही हैं
जब तक तेरे पाँवों की यह बेड़ी नहीं कटेगी
पराधीनता की रजनी धरती से नहीं हटेगी
जैसे रवि के उगते ही हर दिशा प्रकाशित होती
तेरे जगते ही जग जायेगी यह जगती सोती!
मंत्र सनातन वह भारत का रूप मनुज का लेकर
साबरमती-तीर पर आया अपनी नौका खेकर
वहीं एक छोटी-सी कुटिया में बैठा व्रत ठाने
स्वतंत्रता के हवन-कुंड में समिधा लगा चढ़ाने
जैसे फेंका जाल सुनहरा जादूभरा किसीने
‘परख-परखकर माली ज्यों उपवन की कलियाँ बीने
कैसी थी पुकार, आ पहुँचे वीर-प्रवर घर-घर से!
एक-एक कर रत्न सभी ज्यों निकले रत्नाकर से
शांत, मौन, निर्लेप, समर्पित, निरभिमान, निष्कामी
वह बिहार था जिसने पहली विजय-पताका थामी
घर या वन, कारा कि सुसज्जित सदन समान जिसे था
बापू का आदेश, वही बस एक विधान जिसे था
जैसे पुलकित हुए राम थे देख भरत-सा भाई
वैसे ही राजेंद्र-विभा दी बापू को दिखलाई
कोमल कर में असि लेकर दुर्गा-सी खड़ी हुई थी
पहले-से जो मुक्तकुंतला रण को अड़ी हुई थी
शस्य-श्यामला वही बंग-भू शत-शत बलियाँ पाकर
आयी दास-सुभाष-सदृश वरदान लिये करतल पर
यों तो वीर अनेक शीश देने को खड़े हुए थे
पर सुभाष के रोम-रोम में भाले गड़े हुए थे
यही तड़प थी, मुक्ति मिले कैसे गोरे शासन से
चीरूँ नभ को, धरा फोड़कर भी निकलूँ बंधन से
वह भारत का हृदय जहाँ रत्नों की कमी न होती
लाया गूँथ हार में अपना सबसे सुंदर मोती
उस मोती के साथ जवाहर यद्यपि अमित टँगे थे
पर था एक जवाहर जिसपर सबके नयन लगे थे
शांति और समता का रवि, गणतंत्र-विटप का माली
जिसने इस स्वतंत्र भारत की नींव स्वकर से डाली
बापू ने उत्तराधिकारी अपना जिसको जाना
मन-मंदिर में बिठा देश ने जिसे, बहुत-सुख माना
जिस धरती ने मातृ-पदों में अगणित शीश दिये थे
उसके प्रतिनिधि-से बजाज पूजन का थाल लिये थे
यों तो बापू पर कितनों ने रीते कोष किये थे
पर थे भामाशाह वही जो उन पर मरे-जिये थे
यद्यपि सखा सभी बापू को प्राणों से प्यारे थे
पर ये दोनों तो बस उनकी आँखों के तारे थे
इंद्रासन मिल गया एक को देव-मुक्ति के क्षण में
रहकर सेवालीन दूसरा समा गया जन-मन में
महाराष्ट्र-गुजरात खींचते थे रथ रणदेवी का
उनको गौरव मिला विनोबा-वल्लभ-से सेवी का
वही विनोबा जिसमें बापू ने अपने को ढाला
मिलता रहे निरंतर जग को जिससे नव उजियाला
जो हनुमान-सदृश सर्वोदय-ध्वजा लिये निज कर में
भूमिदान के ऋत्विज बनकर चमके दुनिया भर में
जिनके बिना राम के रथ के कभी न चलते चक्के
वल्लभभाई तो बापू के लक्ष्मण ही थे पक्के
राष्ट्रपति का एक राष्ट्र का मंत्र उन्हींने साधा
लौहपुरुष, जिसने भारत को एक सूत्र में बाँधा
वृद्ध अस्थियों में दधीचि-सा बल लेकर जो आये
तिलक-लाजपतराय-गोखले बढ़े भुजा फैलाये
महिमा कौन गिनावे इनकी, तीनों भारत माँ के
तिलक भाल के, दृग के तारे, गुंजन थे आत्मा के
तीनों साधक, रत पहले से देश-मुक्ति के रण में
बापू का स्वागत करते थे जैसे दंडकवन में
जिनके शोणित से स्वतंत्रता की सीता जनमी थी
उन ऋषि-मनियों की भी जाकर बाप ने सुध ली थी
शीतल, शांतमयी, भारत की धरती पर मटमैली
जिनकी यशोधवल छाया चंद्रिका-सदूश थी फैली
जो अगस्त-से ज्ञान-सिंधु को अंजलि में थे भरते
मालवीय जी आये आहुतियाँ अगणित-सी करते
घेर राम को ज्यों त्रेता में महासिंधु के तट पर
साधनहीन, क्षीण-तनु बैठे थे सब सखा सिमटकर
निज-निज पुर से रण-भू में आ पहुँचे सभी स्वराजी
थे अंगद-सुग्रीव-सदृश ज्यों कृपलानी, राजाजी
बढ़े सुधी आजाद शंखध्वनि करते कलकत्ते से
खिँच आया हो मधु जैसे मधुमक्खी के छत्ते से
अलीबंधु, गफ्फार खान, टंडन-से थे अनुगामी
ज्यों नल-नील आदि के सँग थे जाम्बवंत निष्कामी
दीनबंधु ऐंड्रज लाँघकर आये तट लंका का
भारत-श्री सरोजिनी ने फहरा दी विजय-पताका
विविध दिशाओं से अगणित अनुगामी चलकर आये
सब बापू की ओर देखते थे टकटकी लगाये
यद्यपि कोटि-कोटि हृदयों तक उड़ जातीं बेपाँखें
एक सत्य की ओर लगी थीं पर बापू की आँखें
जादू था न चतुरता कोई, नहीं छद्य या छल था
उन आँखों में जो भी बल था, सत्य-प्रेम का बल था
जो विचारमय, उसको कोई मार कभी सकता है!
सत् जिसको कहते हैं, वह क्या हार कभी सकता है!
बापू उसी ज्योतिमय पथ पर बढ़ते थे एकाकी
कोटि-कोटि जन मुग्ध देखते थे त्रेता की झाँकी
राज्य-रहित, नि:सैन्य, धरे मुनि-पट, रथहीन, अकेले
सत्याश्रयी राम ने जैसे वार सहस्रों झेले
और अंत में उसी शक्ति के बल से सहज अशंका
मुट्ठी भर वानर-सेना ले जीती दुर्जय लंका
कोटि-कोटि जान नव मन्त्रों से प्रेरित जाग चुके थे
प्राणों में छायी-युग-युग की जड़ता त्याग चुके थे
जागा पहला मंत्र अभय का और दूसरा श्रम का
मंत्र तीसरा था चरखे से घर-घर के उद्यम का
चौथा मंत्र आत्मनिर्भरतापूर्ण स्वदेशी व्रत था
सत्य-अहिंसा-संपुट का तो मन में जाप सतत था
यों तो तब तक साम्यवाद की लहर नहीं आयी थी
पर बापू ने साम्य-भावना सबको सिखलायी थी
सम था श्रम का मूल्य, कहीं वैषम्य न थी जीवन का
आश्रम-जीवन ही प्रयोग था समता के दर्शन का
सब स्वतंत्रचेता, सब को अवसर विकास का सम था
व्यक्ति इकाई जीवन की, कोई भी अधिक न कम था
लोकतंत्र का रथ समता के पहियों पर चलता है
मंदिर कोई भी हो सबमें दीप वही जलता है
चलने लगा चाक भारत का कुशल, प्रवीण करों से
उभरे रण-बाँकुरे सहस्रों, गाँवों से, नगरों से
मातृभूमि पर वीरव्रती वे शीश चढ़ाने आये
फूलों के तन लेकर पर्वत से टकराने आये
नयनों में विश्वास, प्रेम की शक्ति समेटे आये
अंतर में, उल्लास, शीश पर कफन लपेटे आये
देख रही थी सत्ता, फिर भी तनिक न चलता वश था
मुट्ठी-भर हड्डी के ढाँचे में अजेय साहस था
इस साहस के आगे तोपें फुलझड़ियाँ लगती थीं
फूलों की माला लोहे की हथकड़ियाँ लगती थीं
जेल और कालापानी, देकर निर्वासन, सूली
कत्लेआम करा बर्बरता ने सीमा भी छू ली
बना प्रतीक जालियाँवाला जिस राक्षसी दमन का
वह तो था आरंभ चेतना की विमुक्ति के रण का
रक्त-जिह्व उन लपटों में भी एक कमल हँसता था
शंका, रोष, घृणा का विषधर उसे नहीं डँसता था
वह पावन, शीतल, मंगल-आलोक प्रेम की छवि का
जिसके संमुख तेज मलिन था प्रबल जेठ के रवि का
आश्रमवासी देख रहे थे श्रद्वाभरे हृदय से
और देखने लगा उसे तब निखिल विश्व विस्मय से