anbindhe moti

घर-घर में दीपक जले

घर-घर में दीपक जले
स्नेहभरे नयनों के दीपक जले

रवि ने छिपाया मुँह पहाड़ों की ओट में
कोमल जल-शय्या पर किरणें लगीं लोटने
निज-निज नीड़ों की ओर पंछी सुधि-विभोर उड़ चले

तरु की फुनगी पर से मंद-मंद हँसता
चाँद उगा गेंदा के फूल-सा विकसता
दिशि-दिशि लज्जा से अरुण मेघ कनक-रेणु से गले

धूलभरी चूनर में नौरँग की झलकें
नभ से उतरी श्यामा खोले तम-अलकों
चंचल शुक्र-दीप लिये झिलमिल मलय-अंचल के तले
घर-घर में दीपक जले

स्नेहभरे नयनों के दीपक जले

1941