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द्वितीय दृश्य

(ठाकुर सुरेन्द्र सिंह का मकान। ठाकुर साहब अपने नौकर भोला को कमरा सजाने का और सब सामान ठीक से रखने का आदेश दे रहे हैं।उनका सोलह वर्ष का पुत्र रमेश भी कमरा सजाने में पूरी सहायता कर रहा है)

सुरेंद्र सिंह – हाँ, टेबुल यहाँ रख, बीच में। और यह टेबुलक्लॉथ है या माँड़ पसाने का छन्‍ना? रमेश! दौड़ कर वह फूल की जालीवाला कहीं का। फिर मुँह देखने लगा? अबे गदहे की दुम! रेडियो यहाँ से उठाता क्‍यों नहीं? कया इसमें तेरी नानी की आत्मा बैठी है, जो छूने से डरता है! ओह! कुछ शऊर नहीं, मेहमान क्या कहेंगे! एक भी नौकर मेरे यहाँ ठिकाने का नहीं है। सब जैसे लड़ाई के भगोड़े हैं, भगोड़े। शारदा, जरा टाइमपीस तो दे जाना, बेटी। ओह, अभी से बाहर निकलना बंद कर दिया! अभी तो गाड़ी आने में देर है। छः भी नहीं बजे हैं। गया की गाड़ी तो शाम के छः बजे के बाद आती है। (रमेश से) क्‍यों रमेश! तुझे अपने जीजाजी की याद है?

रमेश – वाह, याद क्‍यों नहीं? विवाह के समय पाँच वर्ष का था तो क्‍या हुआ? दीदी से कितनी बार उनका पूरा हुलिया जो सुन चुका हूँ। गुलाब के फूल-सा मुँह, चंपे की कली-सी नाक, आम की फॉक-सी आँखें ।

सुरेंद्र सिंह – (रस लेते हुए) पर तेरी जीजी भी तो विवाह के समय पाँच वर्ष की बच्ची थी। उसे शिरीष क्या याद हो सकता है! याद तो मुझे भी नहीं आता, वह तो घूँघट में लिपटी गुड़िया जैसी बैठी थी। शिरीष भी तो अब 22-23 वर्ष का युवक हो गया होगा। उस समय तो महज 12-13 वर्ष का बच्चा था। (मुड़ते हुए) जान पड़ता है, यह सब वर्णन तेरी दीदी ने किसी कहानी की पत्रिका से रट लिया है।किस्से-कहानियों ने उसे चौपट कर रक्खा है। दिन भर माया, मनोहर कहानियाँ, सारिका, कादंबिनी और रंग-बिरंगे उपन्यास, न जाने क्या-क्या पढ़ती रहती है!

रमेश – (नटखट मन से) हाँ, देखिए न पिताजी, मैं मना करता हूँ तो मानती नहीं। लेकिन, पिताजी, आज कल तो लड़कियाँ ससुराल जाने के पहले ही पति से पत्र-व्यवहार भी शुरू कर देती हैं।

(अन्दर नेपथ्य से शारदा की आवाज)
शारदा – शैतान कहीं का, मैंने तुझसे कब कोई बात उनके बारे में कही है? झूठमूठ मुझे बदनाम करता है।

रमेश – वाह दीदी, वाह! भूल गई? उस दिन रितिक रोशन को दिखाकर नहीं कह रही थी कि तेरे जीजाजी क्या इससे कम सुन्दर हैं! भूल गयी! जब हम लोगों में यह झगड़ा हुआ था कि कैटरीना ज्यादा सुन्दर है कि ऐश्वर्या राय?

सुरेंद्र सिंह – यह कैटरीना और ऐश्वर्या राय क्‍या तेरी दीदी की सहपाठिनियाँ हैं?

रमेश – (ताज्जुब से) आप इन्हें नहीं जानते? तब आप अखबारों में इतनी आँख गड़ा-गड़ाकर रोज पढ़ते क्या हैं? ऐश्वर्या राय के विवाह पर कितने लोगों ने बधाई का संदेश भेजा था, आमीर खान ने अपनी पत्नी को तलाक क्‍यों दिया, यह भी आप नहीं जानते होंगे?

सुरेंद्र सिंह – (हँसते हुए) अखबारों में तो मैं यह पढ़ता हूँ कि पाकिस्तान ने हिन्दुस्तान को क्‍या संदेश भेजा। आज अमेरिकी जहाजी बेड़ा किस महासागर में पहुँचा।

रमेश – ऊँह, मुझे तो उन सब बातों में कोई दिलचस्पी नहीं। अच्छा बाबूजी, मैं आप को फिल्म इण्डिया पढ़ने को दूँगा। जीजी तो कहती थी कि …….

(अंदर से शारदा की आवाज) रमेश, तू चुप रहेगा कि नहीं?

(सहसा बाहर से ताँगे के आने की आवाज)

सुरेंद्र सिंह – रमेश, देख तो तेरे जीजाजी आ गये जान पड़ते हैं। (रमेश बाहर जाता है।) (दीवानजी के साथ सुरेश का प्रवेश) (सुरेश प्रणाम करता है, और ठाकुर सुरेन्द्र सिंह आशीर्वाद देते हैं।)

सुरेंद्र सिंह – आओ बेटा, मैं तो तुम्हारा इन्तजार ही कर रहा था! क्या अकेले ही हो?

सुरेश – जी, अभी तो अकेला ही चलता हूँ।

सुरेंद्र सिंह – (हँसते हुए) ठीक है, ठीक है, साथ में आदमी की जरूरत तो हम बूढ़ों को होती है।

सुरेश – बूढ़े! (पास जा कर) उहूँ, आप बूढ़े नहीं हो सकते, आप को जो बूढ़ा कहे, समझ लीजिये उसकी आँख में मोतियाबिंद पूरा उतर गया है। अजी, मैं कहता हूँ, आप तो हम नौजवानों के भी कान काट रहे हैं। (दीवान से) क्‍यों दीवानजी, है न? (सुरेंद्र सिंह हक्का-बक्का होकर देखते हैं)

दीवान – जी हाँ, इसमें क्या शक है? मालकिन के मरने के बाद से यही मैं रोज सरकार से कहता हूँ, पर सुनें तब तो। एक-से-एक सुन्दर लड़कियाँ इनसे ब्याह करने को तैयार हैं, पर …

सुरेंद्र सिंह – (डाँटकर) दीवानजी! (दीवान घबड़ा कर चुप हो जाता है)।

सुरेश – जरूर तैयार होंगी, अजी, लड़कियों को आज कल पति मिलते कहाँ है! रोज पत्रों में विवाहेच्छुक बालिकाओं की सूची निकलती है और उनसे विवाह करने के लिए एक-से-एक प्रलोभन दिये जाते हैं। पर अब तो लोग बीबी के नाम से ही घबराने लगे हैं। बीबी है भी एक इल्लत। विवाह करने के वर्ष भर बाद से भी जो सालाना पैदावार का सिलसिला प्रारम्भ होता कि बस कुछ न पूछिए! मेरे एक मित्र अपने विवाह को कितने वर्ष हुए, यह लड़के-लड़कियों की संख्या से बताते हैं।

सुरेंद्र सिंह – (धीरे से दीवानजी से) अभी तक मैंने ऐसा मेहमान नहीं देखा।

सुरेश – (सुनते हुए) अभी आपने देखा ही क्या है, ठाकुर साहब! और फिर हमारी मेहमाननवाजी का बोझ उठाने से तो साक्षात्‌ यमराज भी काँपते हैं। खैर, यह तो बताइए, भोजन आदि का भी कुछ प्रबंध है या यों ही टरकाने का विचार है?

सुरेंद्र सिंह – (घबराकर) अरे भोला, ओ भोला! जा तो पहले बबुआ का हाथ-मुँह तो धुला।

दीवान – (जोर से) चलिए सरकार।

सुरेश – चलो भाई, हाथ-मुँह धो लें नहीं तो भोजन से भी हाथ धोना होगा। नहाने से भूख तेज भी हो जाती है। क्‍यों, दीवानजी?

दीवान – जी हाँ, मसिहाये-हिन्द हकीम नजला अली के छोटे भतीजे हकीम फालिज अली का कहना है –
ज्योंही पीठ पर पहुँचे पानी
पेट बने झट चूहादानी

सुरेश – (सुरेन्द्र सिंह से) देखिए साहब, जिस कार्य के लिये आया हूँ, वह हो चाहे मत हो, भोजन और सत्कार में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होनी चाहिये। यों तो उसके विषय में भी मेरा तो यही कहना है कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं, विलंब घातक है। क्‍यों दीवानजी?

दीवान – जी हाँ, आप बिल्कुल ठीक फरमाते हैं। मेरे पिताजी भी यही कहते थे कि जिंदगी और बेटी पराया धन है। इनका भरोसा क्‍या!

सुरेश – (हँसते हुए) वे भी किसी इंस्योरेन्स कम्पनी के एजेन्ट रहे होंगे?

दीवान – जी, जी वे …

सुरेंद्र सिंह – (डाँट कर) दीवानजी |

सुरेश – (अनसुनी करके) कोई बात नहीं, कोई बात नहीं, हाँ तो दीवानजी, आप की उम्र क्या है? कहिये तो आपका बीमा करवा दूँ?

दीवान – (अकचका कर) मेरी बीमा! मैं तो पचास से भी ऊपर का हुआ।

सुरेश – अजी इसकी चिंता आप न करें, कागज पर दस्तखत होना चाहिए, मैं तो मरे हुओं का बीमा करा देता हूँ। आप तो अभी जिंदा हैं।

दीवान – हें…हैं….हैं, जिंदा, (हाथ का मसल फुलाने का विफल प्रयास करते हुए) अभी तो मुझ में चार घोड़ोंवाले इंजन की ताकत है।

सुरेंद्र सिंह – और उतने ही गदहों का दिमाग है! मैं कहता हूँ दीवानजी, आप चुप भी रहेंगे या नहीं?

सुरेश – जाने दीजिए, कल फुरसत से बाते होंगी, अभी तो यह बताइए; भोजन में मेरे लिए किस-किस चीज का प्रबंध है? मुझसे पूछिए तो, अगर चाय हो तो केक-बिस्कुट जरूर रहे, खीर हो तो साथ में खीरमोहन और रसमलाई ठीक रहेगी, और अगर (हँसते हुए) मूर्गमुसल्लम हो तो ऊपर से स्कोच व्हिस्की भी होनी चाहिए। पूड़ी, हलुआ, चपातियाँ, बादाम-पिस्ते की बर्फियाँ, वगैरह तो आपने अवश्य रक्खी ही होंगी, उनके विषय में क्या कहना है! मैं तो सभी तरह की जमायतों में शरीक होता हूँ,
“जैसा मौसम हो मुताबिक उसके मैं दीवाना हूँ
मार्च में बुलबुल हूँ तो जुलाई में परवाना हूँ?
और देखिये, ज्यादा तकल्लुफ्‌ की आवश्यकता नहीं, बस इतना समझ लीजिये कि चौपायों में तो मैंने चारपाई छोड़ रक्खी है, उड़नेवालों में हवाईजहाज और जलचरों में नाव और बड़े-बड़े जहाजों से परहेज है! बाकी तो सब जड़-जंगम दाँतों की रेलगाड़ी पर चढ़कर सकुशल पेट-पुरी
की यात्रा कर चुके हैं।(भोला से) चलो भालूराम, हाथ-मुँह धो आवें।(जाते हुए गाता है)

मेरे लिए साकी न करे कोई तकल्लुफ,
चुल्लू से ही पी लूँगा जो पैमाना नहीं है …

(पर्दा)