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पांचवाँ दृश्य
(रात का समय, सुरेन्द्र सिंह का मकान। बहुत मंद प्रकाश है। सुरेश सोया है। एक छाया-सी आती है।)

सुरेश – (सपने में) तो आपकी आँखों को मैं अच्छी लगी? आप कितने सुन्दर हैं! कितने खुशमिजाज हैं! नाचना जानते हैं, गाना जानते हैं, (सहसा जागकर) कौन आया?
(शारदा चुपचाप अँधेरे में पास आती है।)

सुरेश – (उसे अँधेरे में छाया समझकर) तुम आं गयी, छाया! मैं जानता था तुम जरूर आओगी। मेरी प्रत्येक साँस पुकार-पुकार कर इसकी घोषणा कर रहीं थी। स्वच्छंद गगन में उड़नेवाले पंछी को तुमने तीलियों में बसा लिया। उन्मुक्त कानन का मृगराज आज तुम्हारी आँखों के पिंजरे में बन्द है। किस काम से आया था, कया हो गया! जैसे दो आत्माएँ युग-युग से तड़पती हुई मिलन की इसी घड़ी की प्रतीक्षा में विकल हो रही थीं। जैसे दो अनजान हृदय इसी स्वप्निल संगीत की झंकार सुनने को कान लगाये थे। छाया, छाया-
(शारदा चुपचाप और पास चली आती है)

सुरेश – मेरे पास आ जाओ, छाया! डरो मत, देखो, मेरे दिल की धड़कनें तुम्हें बुला रही हैं। अब मेरे और तुम्हारे बीच कोई व्यवधान नहीं रहेगा। मैं तुममें अपने भटकते हुए जीवन का विराम पा गया हूँ। मेरे सपनों की रानी! (हाथ बढ़ाता है। शारदा हाथ हटाती है।) तुम्हें विश्वास नहीं है, छाया! तुम समझती हो मैं तुम्हें अपनी साधों का खिलौना बनाना चाहता हूँ। तुम्हारे फूल से कोमल हृदय की सुवास चुराकर, तुम समझती हो, मैं तुम्हें मर्दित पंखड़ियों के समान धरती पर छोड़ जाऊँगा। नहीं, ऐसा नहीं होगा। मैं तुमसे विवाह करूँगा। मैं ईश्वर की शपथ खाकर कहता हूँ, मैं तुमसे विवाह करूँगा।
(शारदा के सिसकने की आवाज सुनकर)
तुम रोती हो! परन्तु तुम्हारे ये आँसू ख़ुशी के आँसू हैं। मैं जानता हूँ कि मेरी तरह तुम भी ख़ुशी से पागल हो रही हो और ये आँसू उसी प्रसन्नसता को व्यक्त करनेवाली चमकीली मणियाँ है। परंतु यह सब इतना एकाएक हो गया कि तुम्हारे लिए इसका पूरी तरह समझ सकना कठिन-सा हो रहा है। तुम मुझे भी अपने कॉलेज के उन भावुक विद्यार्थियों में तो नहीं समझती जिनके प्रेम की आग प्रत्येक आनेवाली सुन्दरता के प्रभाव से भभक उठती है और फिर उसी तरह ठंडी भी पड़ जाती है? नहीं, छाया! नहीं, मैं उनमें नहीं हूँ। मैं प्रेम करना जानता हूँ तो उसे निभाना भी जानता हूँ।

शारदा – (धीरे से) शारदा? |
सुरेश – शारदा? हः हः हः शारदा? हः हः हः हः … वह तो एक खिलौना है। कितनी गलतफहमी है मेरे प्रति उसकी! मेरी पत्नी बनने का दावा करती है। कभी आइने में अपनी शक्ल भी नहीं देखती। मूर्ख, बिचारी।

शारदा – पर, वह क्याः करे?
सुरेश – क्या करे? गले में रुद्राक्ष की माला और अंगों पर भभूत लगाकर निकल जाय और गाती फिरे-
“काल्ह कहिल पिया जाइब रे, मोहि मझु मारू देश,
मैं अभागिनि नहि जानलि रे, न तs धरती जोगिनिया क वेष!’
शारदा – आप (गला रुँधने से चुप हो जाती है)।
सुरेश – मेरा शारदा से क्याँ संबंध! चाहे जहाँ जाय, जिसके साथ इच्छा हो, रहे। जो अपनी बीबी को सँभालकर नहीं रख सकता, वह उसके गुम होने की चिंता क्योंा करने लगा! हाँ तो छाया! मेरे पास आओ, मेरे गले से लग जाओ, शारदा की चिंता छोड़ दो। छाया, मेरी रानी!
(उठकर बढ़ता है। हाथ बढ़ाते -ही शारदा एक तमाचा मारती है। स्टेज पर प्रकाश हो जाता है)

सुरेश – (जोर से) शारदा?
शारदा – हाँ, वहीं शारदा, जिससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं। जो तुम्हारे लिए चाहे जहाँ चली जाय, चाहे जिसके साथ रहे। निष्ठुर! निर्मोही! परन्तु मैं भी दिखा दूँगी कि यदि पुरुष के अत्याचार की सीमा नहीं तो नारी भी बदला लेना जानती है। उसके पास भी हदय है. और उस हृदय में अपमान की ज्वाला जब एक बार धघक उठती है तो अपना प्रतिशोध लेकर ही शांत होती है। मैं छाया का खून कर दूँगी।
सुरेश – ओह शारदा! ठहरो तो, सुनती जाओ, बड़ी भूल हो गयी। (शारदा बिना रुके चली जाती है।)

(पटाक्षेप)