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आठवाँ दृश्य

(सुबह का समय। ठाकुर सुरेंन्द्र सिंह का मकान। ठाकुर साहब बैठे रेडियो पर गीत सुन रहे हैं। पास में दीवानजी बैठे हैं। सुरेश का प्रवेश)।

सुरेश – (चरण छूकर) रात में मुझसे बड़ी असभ्यता हुई । बात यह थी कि मैंने थोड़ी भाँग पी ली थी। क्षमा कीजियेगा।
सुरेंद्र सिंह – कोई बात नहीं। हाँ अभी आपके पिता बाबू महेश सिंह का फोन आया है कि वे इसी गाड़ी से आ रहे हैं। मैं समझता हूँ, वे अब आ ही चले।
सुरेश – महेश सिंह? मेरे पिताजी? इसी समय आ रहे हैं!
(सोचता हुआ जाता है)
सुरेंद्र सिंह – मालूम होता है हमारी बिटिया ने रात में अच्छी खबर ली है। आजकल के दामाद लड़कियों के वश में ही आते हैं।
(शारदा का प्रवेश)

शारदा – पिताजी, वे तो अभी जा रहे हैं। कहते हैं कि मुझे दूसरी बार आयेंगे तब ले जायँगे। रात के बर्ताव से वे बहुत शर्मिन्दा हैं।
सुरेंद्र सिंह – दूसरी बार ले जायँगे! नहीं, यह कभी नहीं होगा। इतने दिनों के बाद तो साइत निकली है। तुझे जरूर साथ ले जाना होगा।
शारदा – कहते हैं कि जीवन-बीमा का काम कर रहा हूँ अपने पिताजी से कहकर दीवानजी का दस हजार रुपयों का बीमा करवा दो।
सुरेंद्र सिंह – बीमा तो मैं बीस हजार रुपयों का करवा दूँगा, परंतु…
शारदा – उन्होंने यह कागज दस्तखत करने को दिया है। रुपये भी साथ ही चाहिये!
दीवान – सरकार, मेरे लिये!
(शारदा फार्म देती है। दीवानजी दस्तखत करते हैं और ठाकुर साहब चेक देते हैं।)

शारदा – आप दीवानजी को मेरे साथ भेज दीजिए न, उन्हें समझाएंगे।
सुरेंद्र सिंह – जाइए दीवानजी, और उन्हें यह भी कह दीजिएगा कि मैं सब कुछ जान गया हूँ। विदाई उन्हें करानी ही होगी।
(दीवान और शारदा का प्रस्थान। रमेश का प्रवेश)

रमेश – पिताजी, छाया ने मुझसे विवाह करना स्वीकार कर लिया है। आप स्वीकृति दे दें तो….
सुरेंद्र सिंह – चुप, बकबक करता है।

(मनोहर सिंह और हरिमोहन का प्रवेश)
मनोहर सिंह – ठाकुर साहब, राम-राम।
सुरेंद्र सिंह – (उठते हुए) राम-राम, ठाकुर साहब!
मनोहर सिंह -क्या बताऊँ? रात को मेरे घर में एक भेड़िया घुस आया है। उसके साथ एक मेमना भी है।
सुरेंद्र सिंह – बंदूक चाहिए?
मनोहर सिंह – जी, आपने समझा नहीं? एक डाकू और उसका नौकर रात से मेरे घर में डेरा डाले पड़े हैं।
सुरेंद्र सिंह – तो आपने पुलिस में ख़बर नहीं दी?
मनोहर सिंह -पुलिस की सहायता लूँ या आपही उनसे निपट लूँ, यही सलाह करने तो मैं आपके पास आया था।
सुरेंद्र सिंह – लेकिन क्याँ इस बीच में वे भाग न जायँगे?
हरिमोहन – अजी, वे भागनेवाले डाकू नहीं हैं। एक तो इंस्योरेंस का एजेन्ट है, दूसरा उसका नौकर। एक को तो मैंने पाखाने में बन्द कर दिया है, दूसरे को गुसलखाने में।
रमेश – वाह, बड़ा मजा आया होगा! मैं देख कर आऊँ कि कैसी हालत हो रही होगी उनकी! बन्द होने के समय तो बड़ी उछल-कूद मचायी होगी दोनों ने?
हरिमोहन – नहीं, उन्हें तो यह पता भी नहीं है कि उन्हें बन्द किया गया है या किवाड़ आप ही लग गये हैं। पुकारने में शर्म आती है। दोनों शर्माऊ भी तो एक नम्बर के हैं। अन्दर से चुपचाप अपनी-अपनी जुगत भिड़ा रहे हैं। बीच-बीच में एक दूसरे की खबर भी पूछ लेते हैं और अपने-अपने अनुभव कह-सुन लेते हैं।
सुरेंद्र सिंह – (हँसते हुए) तुम भी खूब हो। हाँ, उन दोनों का कसूर क्या था, यह तो आप लोगों ने बताया ही नहीं।
हरिमोहन – वे हम लोगों की बीमा कराने आये थे।
सुरेंद्र सिंह – तो करा लिया होता। यह तो बड़ी अच्छी चीज है।
मनोहर सिंह – रात में मेरी लड़की के पास वह एजेन्ट आया और उसे अपने साथ भागने को कहने लगा।
सुरेंद्र सिंह – किसको ? छाया को?
हरिमोहन – जी हाँ, वह तो छाया खुद ही चंट थी, दूसरी लड़की होती तो अब तक भाग चुकी होती।
मनोहर सिंह – देखते हैं न! मेरी इज्जत ही लूटने की तैयारी थी। अब यदि मैं उसकी जान ले लूँ तो क्यार मुझ पर खून का मुकदमा चल सकता है?
सुरेंद्र सिंह – हर्गिज नहीं, छोड़ देने से ही चल सकता है। लेकिन मनोहर सिंहजी आप में और मुझमें ज्यादा अन्तर नहीं है। मेरे दामाद इन्स्योरेन्स-एजेन्ट हैं और एक इन्स्योरेन्स-एजेन्ट आपके दामाद बनना चाहते हैं।
मनोहर सिंह – आप मजाक करते हैं, ठाकुर साहब! मेरा तो खून खौल रहा है।
रमेश – अजी, मेरा भी खून खौल रहा है। पिस्तौल दीजिए तो अभी बाजुओं की कूबत दिखा दूँ। छाया को, मेरी छाया को वह भगाना चाहता था? बदमाश कहीं का! जानता नहीं, वह मेरी मँगेतर है।
मनोहर सिंह – क्या कहा! छाया तेरी मँगेतर है! तेरा माथा तो नहीं फिर गया!
रमेश – क्यों छाया में क्या खराबी है जो मेरी मँगेतर नहीं हो सकती? लँगड़ी है? लूली है? कानी है? फिर आपको आश्चर्य क्योंं है? मेरी हिरोइन बनने के सब गुण उसमें हैं। सुन्दर, शर्मिला टैगौरं-कट चेहरा, सुराहीदार गर्दन, जैसी करिश्मा कपूर की है और हेमामालिनी के जैसी बाँकी हँसी। चलती है तो पीछे से देखने में ऐश्वर्या राय मालूम पड़ती है।
सुरेंद्र सिंह – बदतमीज कहीं का, चुप रहता है कि नहीं! हाँ तो मनोहर सिंहजी! इतना तो निश्चित है कि उस इन्स्योरेन्स एजेन्ट को जिन्दा नहीं छोड़ना चाहिए। यह तो सारी राजपूत-जाति की मर्यादा का प्रश्न है। सवाल तो यह है कि उसे किस तरीके से मारा जाय। गर्दन दबा कर या घूँसों से ? तलवार या बंदूक तो ऐसे निरीह प्राणियों पर मुर्गी पर तोप चलाने जैसी होगी। क्योंस नहीं शिकार से ही पूछकर देखा जाय कि वह कैसी मौत पसन्द करता है!
(सहसा हरिमोहन की ओर देखकर)
क्यों हरि, तुम भी शिकार के शौकीन हो?
हरिमोहन – जीं, हाँ, घर में मक्खियों का और कॉलेज में मधुमक्खियों का।
सुरेंद्र सिंह – सुनते हैं, मनोहर सिंहजी! आजकल के लड़कों को यही तो सिखाया जाता है। फिर उस इन्स्योरेन्स एजेन्ट का ही क्या दोष है! खैर, दूसरी बात जो मैं कहने जा रहा हूँ वह यह है कि आप छाया का विवाह जितनी शीघ्र हो सके, कर दीजिए।
रमेश – मैं भी यही चाहता हूँ। मेरे लिये तो फिल्म में जाने में यही एक बाधा हो रही है।
मनोहर सिंह – (सुरेन्द्र सिंह से) क्या आपके कहने का यह अर्थ है कि छाया का विवाह इस कल के छोकरे से कर दूँ?
रमेश – मैं कल का छोकरा हूँ! आप लोग समझते हैं कि प्रेम करने का अधिकार तभी हो सकता है जब चेहरे पर बित्ता भर की दाढ़ी और हाथ भर की मूँछ, नहीं, नहीं, हाथ भर की दाढ़ी और बित्ता भर की मूँछ उग आये। जानते नहीं फ्रायड ने क्या कहा है?
सुरेंद्र सिंह – चुप रह फ्रायड के बच्चे! निकल यहाँ से।
(रमेश जाता है)
(मनोहर सिंह से) आप भी क्या बात करते हैं, मनोहर सिंहजी! इस छोकरे से मैं छाया का विवाह करने को कहूँगा? इसकी जोड़ तो आपकी छोटी लड़की कामिनी ही है। मैं तो यह कहता था कि छाया बीस वर्ष की हो गयी, कॉलेज में पढ़ती है, चंचल स्वभाव की है। और फिर सूने घर में कौन नहीं रहना चाहता?
मनोहर सिंह – सो तो ठीक है, लेकिन मेरी छाया बड़ी सुशील लड़की है।
सुरेन्द्र सिंह – तभी तो वह हमारे पाहुन से आँखें लड़ा रही थी।
मनोहर सिंह – देखिये सुरेन्द्र सिंहजी! मेरी पुत्री के संबंध में आपको ऐसी बात कहने का कोई अधिकार नहीं है।
सुरेंद्र सिंह – हाँ, वह तो उनके गले में लिपट कर गायत्री-मंत्र का जाप कर रही थी।
मनोहर सिंह – क्या कहा? छाया आपके मेहमान यानी शारदा के पति के गले
से लिपट रही थी! आप जानते हैं, आप क्याे कह रहे हैं!
सुरेंद्र सिंह – मैं कहता हूँ कि छाया कल रात को हमारे मेहमान के साथ लिपटी खड़ी थी। सब ने उसे देखा है। फिर आपके इंस्योरेस-एजेंट से उलझ गयी, क्या उसका कुछ दोष नहीं हो सकता?
हरिमोहन – हो सकता है, लेकिन इतना ही कि वह अविवाहित है, कॉलेज में पढ़ती है, और, जरूरत से ज्यादा सुन्दर है।
सुरेंद्र सिंह – यह कोई छोटा अपराध है? लेकिन हमारे मेहमान के पास से तो उसे शारदा ने दूर किया, नहीं तो वह बिगड़ी हुई घड़ी की सूई की तरह हटना ही नहीं चाहती थी।
हरिमोहन – आपके मेहमान ही परले सिरे के लफंगे मालूम पड़ते हैं! वह आप लोगों के संकोच के मारे कुछ नहीं बोल सकी होगी।
सुरेंद्र सिंह – आजकल की लड़कियों में एक ऐसे ही अवसर पर तो संकोच करना रह जाता है, बाकी तो सब संकोच लिपस्टिक, पाउडर और सेंट की बौछार में कब का धो कर बहा दिया जाता है।
मनोहर सिंह – बस, बस, बस, बहुत सुन चुका, ठाकुर साहब! मैं भी ठाकुर हूँ। आप पच्चीस वर्ष आनरेरी मजिस्ट्रेट रह चुके हैं तो मैं भी तीस वर्ष मुख्तारखाने में मोर्चा ले चुका हूँ।
सुरेंद्र सिंह – अजी, अभी आपने सुना ही क्याे है! आपकी सुपुत्री छायादेवी आज तड़के हमारे पाहुन के कमरे से बाहर आयी थी, यह तो आपको अभी सुनना बाकी ही है।
मनोहर सिंह – यह आप क्या कह रहे हैं? क्या कह रहे हैं आप? जानते हैं इसका परिणाम क्यात होगा?
सुरेंद्र सिंह – जानता हूँ, पर अपनी आँखों पर अविश्वास नहीं कर सकता। बूढ़ा हूँ तो क्या हुआ! अभी तीस हाथ दूर पर का निशाना दौड़ता हुआ उड़ा सकता हूँ। मैंने स्वयं छाया को बड़े तड़के मेहमान के कमरे से जाते देखा है।
मनोहर सिंह – यदि आपकी बात सच निकली तो सबसे पहले छाया को ही मौत के घाट उतार दूँगा। उस इंस्योरेंस-एजेन्ट को पीछे देखा जायगा। लेकिन वह आपकी सुपुत्री शारदा तो नहीं थी जिसे आपने देखा था?
सुरेंद्र सिंह – शारदा तो उस समय सोकर भी नहीं उठी थी। तड़के छाया को यहाँ से जाते देखकर मैंने निश्चय किया कि मेहमान विदाई कराके जितनी शीघ्र यहाँ से चले जायेँ, अच्छा हो । ज्यों ही उन्होंने इंस्योरेंस के लिये कहलवाया, मैंने स्वीकार कर लिया। उनके पिता महेश सिंह को तो तार दिया ही जा चुका था। अब लगता है कि छाया देवी वहाँ भी कोई गुल खिला रही थी।

(सहसा छाया और सुरेश का प्रवेश)
छाया – मैंने विवाह के लिए अपने पति का चुनाव कर लिया है।
मनोहर सिंह – हैं, विवाह! किससे ? कब? कहाँ? (सुरेश की ओर देखकर) इस बीमा-एजेन्ट से, जो तुझे ले भागना चाहता था?
छाया – बीमा-एजेन्ट तो जरूर है लेकिन वह नहीं है, जिसको आप लोगों ने समझ रक््खा है।
(सुरेश की ओर इशारा करके) ये भी तो बीमा-एजेन्ट ही हैं, अभी हम लोग सिविल मरेज करने जा रहे हैं।
मनोहर सिंह – क्या कहा! सिविल मैरेज! ऐसा कभी नहीं हो सकता। मैं दोनों को गोली से उड़ा दूँगा। मेरी बंदूक लाना तो, दीवानजी!

सुरेश – दोनों बीबियों को गोली से उड़ा देंगे? अरेरेरे, ऐेसा न कीजिए, मुझे तुरत तीसरी ससुराल ढूँढ़नी पड़ेगी। बिना बीबी के तो अब जीना मुश्किल है। नहीं थी तब तक नहीं थी। आप के यहाँ दस हजार का बीमा तो मिला पर सदा को आदत बिगड़ गयी।
मनोहर सिंह – हरिमोहन! मुझे सँभालना, मेरा क्रोध, मेरा क्रोध तो तुम जानते ही हो, कितना खराब होता है! इस लड़की ने मेरी नाक कटा दी।
सुरेंद्र सिंह – दीवानजी, जल्दी दुनाली लाना, एक ही बार में दोनों को साफ करना है।

(भोला का प्रवेश)
भोला – सरकार, बिटिया कहती है कि जो मेरे भाग्य में लिखा है वह कैसे टल सकता है! मैं छाया का अपनी सहेली समझूँगी। आप दुःख न करें।
(भोला का प्रस्थान)
सुरेंद्र सिंह – दुःख न करूँ? मगर–
सुरेश – बस, बस, मगर को पानी में ही रहने दीजिए, लेकिन-
छाया – लेकिन वेकिन कुछ नहीं, पिताजी! आपने मुझे पढ़ा-लिखाकर इतना योग्य बना दिया है कि मैं अपना भला-बुरा स्वयं सोच सकूँ। आप को मेरे चुनाव पर कभी पछताना नहीं पड़ेगा।
(बाहर से “ठाकुर साहब हैं?” पुकारने की आवाज)

सुरेश – हाँ, तो मैं चला, महेश सिंहजी आ गये जान पढ़ते हैं। ठाकुर साहब! मनोहर सिंहजी! नहीं, नहीं, ससुरजी! दस-दस हजार के दो बीमा-फार्मों पर अपने और मेरे नये साले हरिमोहन का दस्तखत कराके शीघ्र भेजिएगा। (छाया से) चलो चलें डार्लिंग! और हाँ, सुरेन्द्र सिंहजी! यदि शारदा देवी भी खामखाह मेरे ही साथ जाना चाहें तो उन्हें स्टेशन पर भेज दीजिएगा। मुझे अपनी ओर से कोई आपत्ति नहीं है।
(सुरेश जाता है और अनमनी-सी और संकुचित-सी छाया को भी साथ ले जाता है)

हरिमोहन – मैं अभी क्रिमिनल-प्रोसिजियर-कोड देखता हूँ। तब इनसे समझूँगा।
(हरिमोहन जाता है, महेश सिंह का प्रवेश)

मनोहर सिंह – ठाकुर साहब, राम-राम।
सुरेंद्र सिंह – राम-राम।
महेश सिंह – आप लोग इतने घबराये हुए क्यों हैं? कुशल तो है? (मनोहर सिंह की ओर देखकर)
आप का परिचय? (सब को चुप देखकर) बोलते क्योंि नहीं, शिरीष कहाँ है?
मनोहर सिंह – (सुरेन्द्र सिंह से) आप ही बतला दीजिए,
सुरेंद्र सिंह – जी नहीं, आप ही कह दीजिये।
मनोहर सिंह – जी नहीं, आप।
सुरेंद्र सिंह – जी नहीं, आप।
मनोहर सिंह – अच्छा बताता हूँ। (महेश सिंह से) आप के सुपुत्र साहब अपनी विवाहिता पत्नी को छोड़ गये और मेरी लड़की के साथ चलते बने।
महेश सिंह – ऐं, ऐं, क्या? क्या? क्या?
मनोहर सिंह – ‘क्या’ का पहाड़ा पीछे पढ़िएगा, पहले पूरी वात तो सुन लीजिए।
सुरेंद्र सिंह – महेश सिंहजी! अपने लड़के की करतूत सुन ली न! आपने जन्मते ही उसे जहर क्यों नहीं दे दिया?
मनोहर सिंह – जहर दे देते तो हम लोगों की ऐसी दुर्दशा ही क्यों होती? मैं तो कहीं मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहा।
(सहसा शिरीष और काली का प्रवेश)
शिरीष – (महेश सिंह को देखकर) अरे पिताजी! आप कब आये?
महेश सिंह – नालायक! बेहूदा! मुझे कहीं का भी नहीं रक्खा, समधियाने में मेरी नाक कटा दी। मैं तेरा मुँह भी नहीं देखना चाहता। निकल मेरे सामने से। (मनोहर सिंह की ओर दिखाकर) इनकी लड़की कहाँ है?
शिरीष – लड़की! कैसी लड़की! कौन लड़की! बाज आया लड़की से।
काली – बाप रे बाप! ससुराल है कि यमपुरी! खूब ससुराल चुनी है सरकार, छोटे सरकार के लिए। इससे तो बिना ब्याह किये रहना ही अच्छा था। तीन घंटे तक हम गुसलखाने में कैद रहे और मालिक पैखाने में । ऐसा भी मजाक होता है, सरकार!
शिरीष – और बहू भी भाग गयी, पिताजी! मुझे पैखाने से उसीने बाहर निकाला और यहाँ भेजते हुए कह गयी कि मैंने दूसरे से विवाह करने का निश्चय कर लिया है और जा रही हूँ।
मनोहर सिंह – यह तो बड़ा गोरखधंधा है। यह तो इंस्योरेंस-एजेंट नहीं है। छाया को ढूँढ़कर सच्ची बात पूछनी होगी।
(जाता है।)

महेश सिंह – तुम लोग क्याो बकते हो मेरी समझ में कुछ नहीं आता।
काली – पानी में खड़े-खड़े पीठ पर काई जम गयी, सरकार! छोटे बाबू को तो ऐसी सुगध मिली होगी कि जिंदगी भर ससुराल नहीं भूलेगा। बाप रे बाप!
महेश सिंह – तुम दोनों का दिमाग तो नहीं खराब हो गया!
शिरीष – तीन घंटे ऐसी सुगंध में रहने पर भी दिमाग नहीं खराब हो तो आश्चर्य है। बाप रे बाप! आते के साथ पूछा जाता है “आप को कॉलरा, टी. बी, निमोनिया क्यों नहीं हुआ? गाड़ी क्योंज नहीं लड़ी ? रात भर भूख से तड़पता रहा, किसीने खाने तक को नहीं पूछं। यह तो ससुर और साले का हाल है। और बीबी तो “बेवकूफ’, “बेहूदा’ से नीचे बात ही नहीं करती। अच्छा हुआ भाग गयी। यह ससुराल है या कसाईखाना?
महेश सिंह – हे ईश्वर! यह मैं क्याू सुन रहा हूँ!
सुरेन्द्र सिंह – तो यह हैं आप के सुपुत्र और मेरे दामाद? ओह, कितनी बड़ी भूल हो गई! (जोर से) शारदा! शारदा! (शारदा का प्रवेश) (शिरीष से) बेटा, यह है तेरी पत्नी?

शिरीष – यह मेरी पत्नी? ऐसा कभी नहीं हो सकता। इस स्त्री का तो मैं मुँह भी नहीं देखना चाहता।
(महेश सिंह से) पिताजी, कल यह दूसरे पुरुष के गले से लिपट रही थी। ओह, वे सब बातें याद आते ही खून खौल उठता है। मैं जान दे दूँगा पर ऐसी स्त्री को कभी अपनी
पत्नी नहीं बनाऊँगा।
महेश सिंह – क्याह कहा? मेरे घर की बहू और पर-पुरुष से बात करे!
शिरीष – बात ही नहीं, यह तो उसके साथ विवाहिता स्त्री से अधिक स्नेह दिखा रही थी। पिताजी! आप ने जन्मते ही मेरा गला घोंटकर मुझे मार क्योंथ न डाला जो ऐसी स्त्री से मेरा विवाह किया! मैं इसका मुँह भी नहीं देखना चाहता | काली! (जोर से) काली! चलो चलें, पहली गाड़ी से घर चलना है। बाज आया ऐसी ससुराल से।
(काली के साथ जाता है)
महेश सिंह – यह कैसी बात है, सुरेंद्र सिंहंजी! मेरे समय में तो कुलटा स्त्रियों का सिर उतार लिया जाता था। परन्तु अब भी ऐसी स्त्री को मैं अपने घर में घुसने नहीं दे सकता। मैं शिरीष का दूसरा विवाह कर दूँगा।
(जाना चाहता है)
सुरेन्द्र सिंह – सुनिए तो, जरा-सी गलती से क्याै से क्या हो गया।
महेश सिंह – अब सुनने को रक्खा ही क्या है! (महेश सिंह जाते हैं)
शारदा – पिताजी, क्या सचमुच मेरे पति यह थे?
सुरेन्द्र सिंह – हाँ बेटी! बड़ी भूल हो गयी।
शारदा – तो मैं भी या तो समझाकर अपने पति को घर ले आऊँगी या अपनी जान दे दूँगी। मेरे कारण कितना कष्ट हुआ बिचारे को।
सुरेन्द्र सिंह – ओह, अब मैं क्याे करूँ? (दीवान से) दुष्ट, यह सब तेरी ही करनी का फल है। तू मेहमान को समझा-बुझाकर फिरा ला, नहीं तो तुझे गोली से उड़ा दूँगा।

(सहसा सुरेश का प्रवेश)
सुरेश – क्या बात हे? मैंने अभी शिरीष को पागलों की तरह सड़क पर जाते देखा है। विवाह के दफ्तर से ही उसे रेलवे-स्टेशन भेजकर मैं यहाँ भागा आ रहा हूँ
शारदा – आप? आप ही तो सब झगड़ों की जड़ हैं। मैं रात में छाया का खून कर देती लेकिन भाग्य ने और उसकी सूझ ने बचा लिया। अब शायद मुझे अपनी जान देनी पड़े।
सुरेश – अरे आप बताइए भी क्या बात हो गयी। मैंने तो समझा, महेश सिंहजी आ ही गये हैं, सारी गलतफहमी दूर हो गयी होगी।
शारदा – वे आपकी प्रेमिका समझकर मुझे त्याग गये।
सुरेश – यह बात है! लेकिन बात तो ठीक ही है। कल तो सचमुच आप मेरे गले पड़ रही थीं।
सुरेन्द्र सिंह – देखो सुरेश! यह मेरी लड़की है और अब तुम मेरे दामाद नहीं हो इसलिए इसके विधवा होने का भी डर नहीं है।
सुरेश – देखिये, मैं शिरीष को रास्ते पर लाने का प्रयत्न करता हूँ। जैसी आपकी लड़की, वैसे आपके दामाद, न इनको जीभ न उनको स्वाद।
(जाता है)

शारदा – मैं भी जाती हूँ। यह सब आप लोगों की गलती का फल है। उन बिचारों का क्या दोष? किसी भी पुरुष को गलतफहमी हो सकती है। लेकिन पिताजी, यदि मैं उन्हें अपनी पवित्रता का विश्वास नहीं दिला सकी तो आप फिर मेरा मुँह नहीं देखेंगे।
(जाती है)
सुरेन्द्र सिंह – दीवानजी!
दीवान – जी सरकार!
सुरेन्द्र सिंह – इधर आओ!
दीवान – बड़ी गलती हो गयी, सरकार!
सुरेन्द्र सिंह – दुनाली लाये हो न?
दीवान – (नहीं समझते हुए, बन्दूक लाकर सुरेन्द्र सिंह के हाथ में देते हुए) हाँ, सरकार!
सुरेन्द्र सिंह – (दीवानजी की ओर बन्दूक तान देता है) भगवान का नाम लो दीवानजी! एक, दो।
दीवान – भगवान, सरकार, माई, बाप एक ब॑च्चा है, पाँच बीबी हैं सरकार! नहीं, नहीं, एक बीबी हैं, पाँच बच्चे हैं, सरकार!
सुरेन्द्र सिंह – नहीं, मैं तुझे जीता नहीं छोडूँगा। भगवान का नाम ले, कमबख्त!
दीवान – (दौड़कर पाँव से लिपट जाता है) दुहाई सरकार! बाप रे! मरा!
सुरेन्द्र सिंह – अच्छा जा, शिरीष और शारदा को समझा बुझाकर लेता आ। तुझे दो घंटे का समय देता हूँ।

(पटाक्षेप)