diya jag ko tujhse jo paya
देखूँ फिर-फिर नभ की ओर
जाने कहाँ छिपा है तू थामे अग-जग की डोर!
मेरा मन कुछ समझ न पाता
क्यों तू नित नव फूल खिलाता
और कहाँ नभ में ले जाता
फिर-फिर उन्हें बटोर
है विश्वास अटल यदि, भय क्यों!
श्रद्धा का बल यदि, संशय क्यों!
हो भी तेरा भक्त, हृदय क्यों
भ्रमित देख तम घोर!
क्या न, नाथ! जब-जब मैं हारा
तूने बढ़कर दिया सहारा!
कैसे कह दूँ, ‘भ्रम था सारा!’
क्यों मन में हो चोर!
देखूँ फिर-फिर नभ की ओर
जाने कहाँ छिपा है तू थामे अग-जग की डोर!