ek chandrabimb thahra huwa
मन में एक मीठा दर्द उठता है
और देखते-देखते
वह संपूर्ण जीवन में व्याप्त हो जाता है;
रूप अरूप बन जाता है,
साकार निराकार;
काँटा तो निकल जाता है
पर उसका दश नहीं निकल पाता है;
यद्यपि समय सब कुछ आत्मस्थ कर लेता है,
पर, ओ मेरी मानस-संगिनी
तेरा स्मरण मुझे आज भी पहले-सा ही व्याकुल कर देता है।