gandhi bharati

जागों हे अपमानित-लांछित-पीड़ित-शोषित संसृति के
सदा-उपेक्षित, हे चिर-मर्दित भू के धूलि-धूसरित प्राण!
उठो वेग से झंझा के, हे अस्थिपुंज मनुजाकृति के।
चलो कूप के बाहर, देखो, नव प्रभात करता आह्वान।

है जड़ यंत्र मनुजता के! ढोते जीवन का भार गहन
जड़ मस्तक पर, बनो सचेतन अहे अचेतन ! निज श्रम-फल
लुटते देख रहे जो प्रतिपल, देखो फिर से हुआ दहन
लंकापुर का, आज तुम्हारी आहों से आकाश विकल।

सागर की लहरों से उठती शीतल एक ज्योति-रेखा
है अनाथ, हे सतत्‌ अनाश्रित! बढ़ों नये जीवन के हेतु
लेकर मंत्र प्रेम का मन में, हे पतितों के दल! –देखा,
बुला रहा पावन करने को तुम्हें तिरंगा भारत-केतु

जिसकी छाया तले विश्व ने पाया नव जीवन-अलोक
अरे, कौन मानव बनने से तुमको आज सकेगा रोक!