gandhi bharati

एक दिव्य आलोक लोक में, काँप उठे अंबर के छोर
पीपल के पत्ते-से, गूँजा एक नवल जीवन का राग
पूरब से पच्छिम, उत्तर से दक्खिन, मलयानिल झकझोर
गया जगाता हुआ रंगों में स्वतंत्रता की मोहक आग।

पहली बार वसंत हँस पड़ा वृद्ध भूमि में भारत की
शत्त-शत वर्षों बाद दास ने देखा महामुक्ति का द्वार
क्षितिज-पटीं पर साश्रु दृगों से, ग्रीवा श्रद्धा से नत की
कोटि-कोटि पिंजरीभूत प्राणों ने जर्जर गात्र पसार।

आयी मंद समीरन पर चढ़ कोमल-पद कल्पना-सदृश
आदि विश्व-कवि की, छवि के चित्रण में, रवि की प्रथम किरण
ज्यों स्वर्णिम मेघों से स्तर-स्तर उतर भूमि पर पड़ती हँस
कलियों में, तितली के पर में, कुंजों में रक्ताभ-चरण।

स्वतंत्रता की प्रथम ज्योति वह, प्रथम प्रेम का-सा उन्माद;
वह अस्पष्ट स्वप्न प्राणों का, आयी जैसे भूली याद।