gandhi bharati
देखा मैंने स्वप्न–हिमालय की तमपूर्ण गुफा में बैठ,
जहाँ न पहुँची किरण भानु की कभी, वृद्ध संन्यासी एक
खींच रहा था कुछ रेखायें, मंत्र बुदबुदाता-सा, ऐंठ
क्षण-क्षण पीड़ा से ललाट लेता था शीर्ण करों पर टेक;
नाच रही थीं आसपास प्रज्वलित अग्नि-शालियाँ अधीर
शोणित-सी, झंझा हिम-शीतल कंपित कर जाता था गात्र,
धवल केश दाढ़ी के उसके, सहसा हुई तीव्रतर पीर,
सुना द्वार पर कोलाहल, थीं जिसमें अंतिम साँसें मात्र
एक विद्ध-शर मृग-शिशु आकर गिरा अंक में उसके मौन
विकल टूटते तारों-से ढुलकाकर आँसू काँप उठा
जीर्ण वृक्ष-सा झंझा में वह, ‘हाय! न जाने कब-कब कौन
इस निष्ठुरता की बलि होगा, भूमि सकेगी बोझ उठा!’
प्रथम धर्म-संस्थापक था वह, आदिपिता, जिसने बढ़कर
अपनी आहुति से करनी चाही थी मानवता दृढ़तर।