gandhi bharati
एक मूक रेखा मनुजाकृतियों की तम-घाटी के पार
बढ़ी जा रही चपलचरण, तरुओं की छाया ज्यों दिन का
अंत देखकर निकट, टिमटिमाता तारा; नीला विस्तार
नभ का, गिरि का, व्याकुल करता हृदय मुदित भी हो जिनका
साथ मौन ऊँटों की धूमिल पंक्ति, गले की जिनके क्षीण
टुन-टुन कर उठती रह-रह घंटियाँ, पूछती हों जैसे,
‘और दूर कितनी जाना अब !’ प्रतिध्वनियाँ हो रहीं विलीन
फुही-सदृश झीने समीर में, रो पड़ते बच्चे भय से;
एक चील चक्कर खाकर स्तर-स्तर अंबर से रही उतर
धरती पर ज्यों किसी दिवोन्मुख की साँसें रुकने की बाट
जोह रही हो, नाविक-रहित जलद नावों-से रहे विचर
निरुद्देश्य नभ-सरि में, ढहते देख पूर्व-पश्चिम के घाट;
सन्नाटा है, सब पर जैसे पड़ी मृत्यु की छाया है;
आज मनुजता ने क्या कोई दुर्लभ रत्न गँवाया है!