gandhi bharati
अट्टहास कर उठा महा भौतिकता की वारुणी पिये
नव पौलस्त्य, बँधे बंधन में वरुण, कुबेर, मरुत, दिगूपाल,
इंद्र, चंद्र, रवि, सब सब उसके, आया अशेष फण शेष लिए
शीश-छत्र-सा, लक्ष्मी चँवर डुलाती दासी-सी नत-भाल।
शोणित कुंभ दंभ का पूरित, उठी ज्योति आत्मा की एक
पद-मर्दित वसुधा से, उतरा नहीं शक्तिमद फिर भी, हाय!
बरबस हर ली पर-स्वतंत्रता-सीता कर छल-छद्म अनेक
समझ सत्य को चिर-निर्वासित, चिर-एकाकी, चिर-असहाय।
आत्मिक तेज जगा सहसा शत-शत शीर्षों की जड़ता देख
छुटे राम के तीर, काम के तार-तार भुज-मस्तक छिन्न
उड़े व्योम में, पढ़ तापस की स्मिति में महाशांति का लेख
सकुच पराजित गिरा द्वेष ज्यों अमर प्रेम में लीन, अभिन्न
पास-मुक्त देवत्व हो गया, जयी मनुज, दानवता क्षार,
हे गांधी के राम! तुम्हारी गूँजी घर-घर जैजैकार।