gandhi bharati

जैसे फूलों में मादकता, लहरों में गति, स्वर में राग,
तारों में झंकृति, रेखा में आकृति, किरणों में आलोक,
अर्थ शब्द में, रस में ज्यों आनंद, रूप में चिर-अनुराग,
जल में शीतलता, समीर में स्पर्श, हर्ष में जैसे शोक;

वैसे ही थी देव अहिंसा की तुममें पावन धारा
धर्म-प्रवृत्ति एक ही पन्‍ने के दो पृष्ठ सदृश थे एक
जिन्हें द्वेष का झंझानिल भी भिन्‍न न कर पाया, हारा,
तुमने छोड़ी कभी न सीधेपन की जो पकड़ी थी टेक।

हिंसा-रोष-क्रोध-द्वेषानल की लपटों के बीच अजेय,
अहे अमर आत्मा के चिंतक! सदा अडिग साधक से बैठ
तुमने किया अमृत का वर्षन, क्षुब्ध मनुजता के दृग खोल
दिखा दिया निज जीवन से कितनी गहरी है उसकी पैठ।

साधु-स्वभाव, असज्जन-सज्जन, युग-कर-हित सुगंधकर फूल !
है अवतार प्रेम के! कैसे विश्व तुम्हें पायेगा भूल!