gandhi bharati
घिरे तिमिर-घन, उमड़ रहा अति क्रुद्ध महासागर दुर्दात
काल-जिह्न, शत-फण भुजंग-सा, निशि का ओर न छोर कहीं
सूझ रहा, धरणी कागज की नौका प्रलय-मूर्च्छनाक्रांत
गल-गल कर बहती, विभीत, नभ खंडखंड हो गिरे नहीं।
कहाँ जायँगे ऐसे में ये भग्नपाल ध्रुव के यात्री,
कंपित, कृश-तन, पीत-मलिन-मुख, टूट चुकी आशा-पतवार,
छूटी डाँडें जिनके कर से, महामरणनिशि भव-धात्री
ढँक लेगी मानवता को, मानेगा आज विजेता हार!
नहीं, एक विधुछाया लंबी काया ज्योतिस्तंभ सदृश
देखो कर निर्देश रही आगे बढ़ने का सागर में
चिर-अबाध, चिर-अप्रतिहत; छूटा तम, व्योम रहा ज्यों हँस,
स्वर्णिम लहरें स्मिति से उसकी, शांति क्रुद्ध झंझास्वर में।
लक्ष-लक्ष मानव आत्माएँ महानाश की आँधी में,
देख रहीं निज मुक्ति-द्वार, अमरत्व, सांत्वना, गांधी में,