gandhi bharati

फिर-फिर नाश, सृजन फिर-फिर, जैसे चलता ही जाता चक्र
महाकाल का, सृष्टि बाल से तरुण, तरुण से वृद्ध बनी
मिट जाती, फिर नयी जन्मती, लिए भाग्यरेखा निज वक्र,
दूर स्वर्ग तक उड़-उड़कर भी लौट-लौट आती अवनी।

ओ अनंत पथ के यात्री, इतिहास! नहीं तिल भर विश्राम
जन्म-मरण का लेखा करते तुझे, नहीं पल-भर भी, हाय!
वेश्या राजनीति नर्तन में लेगी यह संयम से काम,
अरे, तनिक तो जीवन की यह अर्थ-काम की गति रुक जाय।

मानव अपने में स्थित होकर देखे परिभ्रमित संसार
स्वप्न-जाल-सा, छूले सत्य-न्याय, केंद्र-स्थल इसके भव्य
जिन पर आधारित यह नश्वर रूप, रंग, ध्वनि का विस्तार,
यह रहस्यमय लोक, चेतना-किरणों से बिंबित जड़ द्रव्य।

सुन ले प्राणों में बहता जो प्रतिक्षण अश्रुत, अनहद नाद,
निज आत्मा के द्रवित अमृत का पल भर तो कर ले आस्वाद!