gandhi bharati

आँसूभरी रात बीती, हँसता प्रभात प्राची-तट पर
स्वर्ण-किरीट पहनकर नूतन; मेरा मन उस पक्षी का,
चढ़कर जो स्तर-स्तर स्वर्गों के स्वर्ण-द्वार की चौखट पर,
अभिनंदन करता दिनमणि का, चहक रहा समकक्षी-सा।

नव प्रभात का करता मैं जयघोष, सुप्त मानव-दल को
मेरी स्वानुभूतियों के स्वर जगा रहे जो जग-जगकर
देख रहे गौरवमय नव आलोक प्राण का, विह्वल हो,
अभिनंदन करते फिर उसका लघु वृंतों से झुक सत्वर।

द्वार-द्वार पर बंदनवार, किरण-बालाएँ खड़ीं सहस्र
भवन-भवन वातायन पर गातीं मृदु स्वर में वंदन-गान,
वंदित-भाल कुलवधू अगणित, पहन पीत रेशम के वस्त्र
माँग रहीं आरोग्य, शांति संतोष, शील, करुणा, कल्याण।

मानवता चिर-सुखी, संतुलित, गत-पीड़ा, गत-भय, गत-शोक,
अमर सत्य का सूर्य उगा है आज विश्व में, नव-आलोक।