guliver ki chauthi yatra

पुनर्जन्म

दीपक भी पुराना था, बत्ती भी पुरानी थी
फिर भी बुझ पायी नहीं, ज्योति आसमानी थी
बचता पर मिट्टी का दिया कब तक टूटने से
शेष में तो लौ को शरण और कहीं पानी थी

सूरत जो नयी पायी, रंगत भी नयी पायी
नया स्नेह-गेह पा फिर दीपशिखा जगमगायी
कैसे पहचानती पर पूर्व स्नेहियों को वह
याद न यह भी था जिसे कब, कैसे, कहाँ से आयी!