har moti me sagar lahre

अब तो आशा एक तुम्हारी
भोग चुका जीवन जैसा भी हलका था या भारी

अब आगे की सुध लेंगे मेरे उत्तराधिकारी
अपना-अपना दिन सबका, अपनी-अपनी है पारी

एक-एक कर चले गये दल के अग्रिम ध्वजधारी
लड़े काल से किन्तु शेष में सबने बाजी हारी

रचनेवाले ने थी कितनी रूचि से रची, सँवारी
कैसे मेटी गयीं, बना वे छवियाँ प्यारी-प्यारी

उखड़ी सभा, गयी उठ घर को ज्येष्ठ-मंडली सारी
मुझको भी अब चलने की करनी होगी तय्यारी

अब तो आशा एक तुम्हारी
भोग चुका जीवन जैसा भी हल्का था या भारी