har moti me sagar lahre
प्रभु ! यह श्रद्धा की डोर न टूटे
छूटें देश, बन्धु, प्रियजन पर यह अवलंब न छूटे
कितनी भी दे चोट, काल जीवन की मणियाँ लूटे
पर मन के तारों से ‘मैं हूँ अमर’ यही सुर फूटे
डिगे न वह विश्वास, किये जिसने जग-वैभव झूठे
तू रखता है सुदृढ़ जिसे देकर नित भाव अनूठे
तेरे बल से ही मरु में भी उगा नये नित बूटे
कीर्ति-विधाताओं को मैंने दिखला दिये अँगूठे
प्रभु ! यह ! श्रद्धा की डोर न टूटे