har moti me sagar lahre
रूप की माधुरी से मन भर नहीं रहा है
कितनी भी पीता हूँ छवि-सुरा
दृष्टि रहती है तृषातुरा
हाय ! इस मधु का हो बुरा
नशा उतर नहीं रहा है
इतना मधुर जो, वह गरल क्यों हो !
फूल सुंदर है, तिक्त फल क्यों हो !
यह संसार तेरा, मृगजल क्यों हो !
भले ही तृषा हर नहीं रहा है
रूप की माधुरी से मन भर नहीं रहा है