har moti me sagar lahre
रूप की तृष्णा मिटी न मेटे
नयनों से पी-पीकर देखा,
भुज भर-भर भी भेंटे
लगा कि और न स्वर्ग कहीं है
कुछ इस रस के पार नहीं है
दूर गगन का चाँद यहीं है
छू लें लेटे-लेटे
मन को पर संतोष न आया
पा-पाकर भी उसे न पाया
निष्फल नित छूने छवि-छाया
तन के तार उमेठे
पर क्यों हो अतृप्ति का रोना !
सुखद तृषा का भी है होना
चिर अरूप है रूप सलोना
बँधे न बाँह लपेटे
रूप की तृष्णा मिटी न मेटे
नयनों से पी-पीकर देखा, भुज भर-भर भी भेंटे