har moti me sagar lahre
आनंदलोक के मंगल आलोक में बिराजो, महासुंदर !
महिमा तुम्हारी विभासित है नभमंडल पर
विश्वजगत मणिभूषन वेष्टित श्रीचरण में
गृह-तारक, सूर्यचन्द्र व्याकुल अति द्रुत गति से
करते पान करके स्नान अक्षय द्युति-किरण में
धरती पर झरें निर्झर, मोहन मधु शोभा है
पुष्प-राग-रंजित वन-सुषमा मनहरण में
बहे जीवन रजनीदिन, तुम्हारी करुणाधारा
अविरत है प्रवहमान जन्म में मरण में
स्नेह, प्रेम, दया, सांत्वना दें भक्त-मानस को
करते नहीं क्षण भी विलंब दुख-हरण में
अदभुत् है यह जगत-महोत्सव, लोक वंदन-रत
निर्भय है तुम्हारे विश्व-रूप की शरण में
आनंदलोक के मंगल आलोक में बिराजो, महासुंदर !