har subah ek taza gulab

तुझसे लड़ जाय नज़र हमने ये कब चाहा था !
प्यार भी हो ये अगर, हमने ये कब चाहा था !

दोस्ती में गले मिलते थे हम कभी, लेकिन
हो तेरी गोद में सर, हमने ये कब चाहा था !

यों तो मंज़िल पे पहुँचने की ख़ुशी है, ऐ दोस्त !
ख़त्म हो जाय सफ़र, हमने ये कब चाहा था !

तुझसे मिलने को लिया भेस था दीवाने का
उठके आया है शहर, हमने ये कब चाहा था !

जब कहा उनसे– ‘मिटे आपकी चाहत में गुलाब’
हँसके बोले कि मगर हमने ये कब चाहा था !