har subah ek taza gulab

इन आँसुओं से तुम अपना दामन सजा रहे थे, पता नहीं था
मुझे मिटाकर भी मेरी क़िस्मत बना रहे थे, पता नहीं था

हवा में घुँघरू-से बज उठे थे, दिशायें करवट बदल रही थीं
किरन के घूँघट में मुँह छिपाकर तुम आ रहे थे, पता नहीं था

दिया हर उम्मीद का बुझाकर, सुला लिया अपना दिल तो हमने
मगर उन आँखों में प्यार की लौ जगा रहे थे, पता नहीं था

ये कैसी बस्ती है जिसकी हद में, गये हैं उठ-उठके लोग सारे !
सभी को मिट्टी के ये घरौंदे लुभा रहे थे, पता नहीं था

कहाँ हैं रंगों की शोख़ियाँ वे, कहाँ हैं अब वे बहार के दिन !
गुलाब ! तुम बाग़ भर में बस एक हवा रहे थे, पता नहीं था