har subah ek taza gulab
उसने करवा दी मुनादी शहर में इस बात की —
‘कोई अब हमसे करे चर्चा न पिछली रात की’
हमने यह समझा कि प्याला है हमारे वास्ते
उसने कुछ ऐसी अदा से मुस्कुराकर बात की
है घड़ी भर दिन अभी खिलते हैं क्या गुल, देखिए
यों तो हरदम लग रही है शह हमारे मात की
राख पर अब उनकी लहरायें समंदर भी तो क्या !
सो गये जो उम्र भर हसरत लिये बरसात की
आज भाती हो न उसको तेरी पँखुरियाँ, गुलाब !
कल मचेगी धूम दुनिया भर में इस सौग़ात की