hum to gaa kar mukt huye

रागिनी यह घर-घर गूँजेगी
नित्य नयी तानों में ढलकर भू-नभ पर गूँजेंगी।

देख सकेंगे सब, जो कुछ मैंने अपने में भोगा
मेरी आँखों का सपना, जग की आँखों में होगा

मेरे अंतर की यह गाथा नगर-नगर गूँजेगी

मिलन-क्षणों में यह प्राणों की भाषा बन जायेगी
और विरह में मधुर मिलन की आशा बन जायेगी

गुणियों के मुँह से निर्गुण की लय बनकर गँजेगी

देशकाल की सीमायें इसको न बाँध पायेंगी
ध्वनियों में छिपकर मेरी भी प्रतिध्वनियाँ आयेंगी

इसके स्वर में मेरी ही आत्मा निःस्वर गूँजेगी

रागिनी यह घर-घर गूँजेगी
नित्य नयी तानों में ढलकर भू-नभ पर गूँजेगी।

जनवरी 87