kavita
कौन तुम वन में विचरती ?
कौन तुम विद्युत-छटा बन बादलों में मुस्कुराती!
यामिनी के तम-सदन में ज्योति का दीपक जलाती!
कौन तुम मृदु मोतियों से दूब का अंचल सजाती!
पट पहिन रक्तिम उषा के, अश्रु नभ के पोंछ जाती।
सांध्य-वारिद में फहरता यह अरुण परिधान किसका!
झूमते प्रातः-सुमन में गूँजता है गान किसका!
स्वर मिलाकर कौन सरिता के स्वरों में गा रहा है!
झिलमिलाते तारकों में हो रहा आह्वान किसका!
खोज में किसकी युगों से बह रहे अविराम निर्झर!
किन पगों पर रिक्त कर देते जलद निज कोष भर-भर!
पुष्प का उपहार ले मधुमास किसके पास जाता!
किस सनेही को बुलाता बाहु अमित पसार सागर!
हार हीरक का पिन्हाने किस विजन-वन-वासिनी को
शारदीया चंद्रिका तज व्योम भूतल पर उतरती!
तुम वही पावस-निशा में मेघ-घूँघट-पट सँभाले
माधवी के कुंज में गाती सुरीले गान, बाले!
गूँजती नीरब प्रकृति में मृदुल नूपुर-ध्वनि मनोहर
देखकर मुखचंद्र छिपता चंद्र तारों की विभा ले
दीप जुगनू के जलाकर तरु-प्रिया मनुहार करती
सृष्टि के प्रारंभ में परिचय हुआ कवि से तुम्हारा
शुष्क जीवन के मरुस्थल में बही सुख-स्नेह धारा
हो उठा सहसा प्रवाहित प्राण से उल्लास-निर्झर
एक नूतन भाव देखा जिस तरफ उसने निहारा
ज्योति-सी कवि को लगी थी तुम गगन-पट से उतरती
कौन तुम वन में विचरती ?
1940