kavita

मरण

मरण! मेरे सर्वोच्च विकास
तुझकों पाकर पूर्ण हो गया जीवन का इतिहास
मोह बहुत तन का करते थे
फूँक-फूँक हम पग धरते थे
तू इतना महान है, प्यारे! यदि मिलता आभास!
उड़कर तेरे पास पहुँचकर ही लेते अवकाश
जीवन में शत-शत विकार हैं
विरह-भार हैं, विधि-प्रहार हैं
और न फिर भी तनिक ठहरने का मिलता अवकाश
ज्यों ही लगती आँख जगा जाती आकर वातास
पगले! चल नूतन नगरी को छोड़ पुरानी मंजिल
जीवन है क्रमबद्ध विरह की घड़ियों का इतिहास

माना, है सौंदर्य कुसुम-सा खिला हुआ सुकुमार
सौरभ बन संगीत किया करता जिसका श्रृंगार
सच है यह भी, यौवन के मधुकर मँडराते रहते
किंतु प्यास का बुझना फिर भी है कितना दुश्वार
परवशता कर जाती सबका पल भर में उपहास
अधरों पर फेनिल मदिरा धर
जिसे पुकारा था जीवन भर
जो आया था किंतु देखकर जीवन का विज्ञान
लौट गया था आँखों तक आकर जो पथिक अजान
पहचाना, वह तुम थे, प्रियतम! अब हो इतने पास

सच है, वासंती अधरों में है उन्माद अचेतन
सच है, मोती बरसा जाती पावस-घन की चितवन
युग-युग का सुख माना क्षण भर की है शरद-विभा में
फूलों पर थिरका करते हैं यहाँ शिशिर के चुंबन
पर संतोष नहीं इससे भी कभी हृदय को होता
यदि होता तो क्‍यों वह प्रतिपल झूठे स्वप्न सँजोता!
जीवन के ही साथ लगा अरमानों का जमघट है
बेअरमानों के जीवन को कहते हैं, मरघट है
क्या हो यह सौंदर्य, विभा, यह सुषमा, यह उल्लास
जब न तनिक ले पाते हैं हम यहाँ शांति की साँस!

वहाँ अँधेरी घाटी के उस पार तुम्हारा घर है
जो जग के उत्थान-पतन की सीमा के बाहर है
वहाँ सदा मधुमास, वहाँ कुम्हलाने कुसुम न पाते
हो न बहुत कुछ, पर जो कुछ है वह तो अविनश्वर है
तरुणी के यौवन में माना लिपटा है आकर्षण
जो क्षण-क्षण देता जग को सुषमा का मौन निमंत्रण
पर जिसने देखी शिरीष की मुरझायी पंखुरियाँ
जिसने देखा कुंज-लता का धूलि-धूसरित आनन
उसे ज्ञात है नश्वव जीवन की अविनश्वर प्यास
उसको हो है, मरण! तुम्हारी कीमत का आभास
मरण! मेरे सर्वोच्च विकास

1940