kavita

मैं तुम्हारे ही गले का हार

देख तुमको खिल पड़ा मैं
लाज से सिहरा, झड़ा में
प्यार से तुमने उठा, दी धूल तन की झाड़

तीर सीने में चुभोया
दर्द था, लेकिन न रोया
जानता था, तुम पिरोते स्नेह का थे तार

मैं खुशी से आज फूला
वह जलन, वह ताप भूला
वेदना वह बन गयी प्रिय-मिलन का आधार

मधुर स्पर्श-विमुग्ध जीवन
अंग थरथर, बंद लोचन
सोचता उन्मत्त हो मन
आह! युग-युग तक मिले यह सुख, यही संसार
मैं तुम्हारे ही गले का हार

1940