kavita

यों ही दिन बीते जाते हैं

सुख जीने में आया न कभी
जीवन में सुख पाया न कभी
जाने किस सुख की आशा से फिर भी हम जीते जाते हैं!

है व्यर्थ नहीं क्या यह जीवन
यह सुख-दुख, यह रोदन-गायन
जिसको जड़-जग के नीतिवान इतना महान बतलाते हैं!

“जब है अटूट दुख का बंधन
फिर क्‍यों यह सुख का आकर्षण ?’
यह द्वंद चला करता प्रतिक्षण, कुछ भी न समझ हम पाते हैं
यों ही दिन बीते जाते हैं

1940