kavita

वाणी का वर दो

विकच पँखुरियों-से मेरे स्वर
दूर क्षितिज में फैल-फैलकर
छा लें दश दिशि, अवनी, अंबर
ढँक लें गृह, तरु, मग, पराग बन, तुम प्रिय पग धर दो

मेरा कवि वह गीत सुनाये
सुन जिसको कोयल शरमाये
चारों ओर धूम मच जाये
कवि-प्रतिभा-रच! वरद ! विश्व नव-छवि-विमुग्ध कर दो

मिले सृष्टि को सहज सुघरता
स्वर में बँध जाये सुंदरता
मैं युग की अगवानी करता
मुझको जीवन की वाणी दो, जीवन के स्वर दो
वाणी का वर दो

1940