kavita
वर्षा
विजन को बना विमल उद्यान
जगाती जगती का उल्लास
पहन हरियाली का परिधान
आ गयी वर्षा ऋतु सविलास
तरंगों पर नदियों की नाच
घनावलियों पर हो आसीन
चपल चपला की लेकर चाल
चली करने को विश्व नवीन
आज वन-वन में हो मधुमास
आज कण-कण में हो उल्लास
प्रकृति के हरित अधर पर आज
खिले शत-शत सुमनों का हास
आज कवि के भावों के साथ
व्योम से उतरें स्वप्न-कुमार
उमड़ता आया जीवन-स्रोत
कल्पने! कर नूतन श्रृंगार
सघन वन-कुंजों में झुक-झूम
कली के मृदु अधरों को चूम
अनिल आशा के दे संदेश
विजन में, वन-उपवन में घूम
दिया जिसके चरणों पर वार
हृदय का पावन पारावार
प्रतीक्षा में जिसकी चुपचाप
सुखा डाली आँसू की धार
शैलबाला! दे अंचल खोल
चयन कर ले मोती दो-चार
युगों की अभिलाषा के बाद
मिला उस निष्ठुर प्रिय का प्यार
जानकर जिसका विषम-वियोग
दिये पीतस परिधान उतार
मनाने आयी है, तरु! आज
वही मधुवन की मलय बयार
सुधा-मादकता का संयोग
मिला करता क्या बारंबार
करो शत सुमनों से श्रृंगार
फलो-फूलो फिर, हे सुकुमार!
वसंती के अंचल में बैठ
छेड़ती थी नित नूतन तान
प्रकृति के प्रांगण में प्रति प्रात
कुहकती थी सरला नादान
सुकोमल कुसुमों से हँस-खेल
किया करती जो प्रेमालाप
न सह पायी थी जो सुकुमार
ग्रीष्म-आतप का दुःसह ताप
गँवा स्वर्गिक सुषमा की राशि
बनी व्याकुल, बेसुध, निरुपाय
भटकती फिरती थी अनजान
करीलों के वन में जो, हाय!
आम्रवनवासिनि! विहँसे. आज
ध्वनित हों युग से मौन दिगंत
हरित मुख पर अवगुंठन डाल
आज आया है पुनः वसंत
1939