mere geet tumhara swar ho

मेरे जन्म-जन्म के साथी
यह तो बता, जन्म के पहले यह अस्मिता कहाँ थी

क्षीण डोर आशा की थामे
लटका था किस शून्य गुहा में
जब इस भूतल पर आया मैं

पा साँसों की भाँथी

रच अगणित निजतायें मन की
क्यों तूने यह सृष्टि सृजन की!
‘एक अनेक बनूँ’ इस प्रण की

आवश्यकता क्या थी!

फिर-फिर जग से नाता टूटे
फिर भी जिसका मोह न छूटे
जिसके बिना अमरपद झूठे

क्या वह बस जड़ता थी?

मेरे जन्म-जन्म के साथी
यह तो बता, जन्म के पहले यह अस्मिता कहाँ थी