mere geet tumhara swar ho

देश और काल
ये हैं या नहीं हैं, नास्तिकों से है यही सवाल

इन्द्रियों से तो इनका पता ही नहीं चलता है
किन्तु इनसे ही रूप सृष्टि का निकलता है
अनुमान से ही बोध देश-काल का हो यदि

क्यों न दें ईश्वर के लिए भी हम यही मिसाल!

और हम भी तो अनुमान पर ही टिके हैं
सदा अनछुए. अनसुने, अनदिखे हैं
जब आत्मबोध से प्रतीति अपनी भी हमें

स्रष्टा के लिए ही बुनें क्यों फिर व्यर्थ तर्कजाल!

‘इतने सूक्ष्म नियम नियामक बिना कैसे बने
चेतना के सूर्य बिना ज्योतिकण कहाँ से छने’
क्यों न यही सोच, भक्ति से हम ईश-पूजा करें!

‘किसने है उसे भी रचा’, बाल की न खींच खाल